छुआछूत
कुछ दिन पहले मधु की शादी हुई थी। कल हीं रात वह शेखर के साथ ससुराल आई थी। आज ससुराल में उसकी पहली होली है। वह सबेरे सोकर उठी और फ्रेश होने के लिए जा रही थी, तभी उसकी नजर जेठानी पर पड़ी। अरे अभी तक कमरे का पर्दा गिरा हुआ है, जल्दी समेटकर ऊपर कर दो”! जेठानी ने कहा।वापस आकर करती हूँ दीदी। मधु ने बाथरूम जाते हुए कहा। मधु का ससुराल सास-ससुर, जेठ-जेठानी, देवर, ननद आदि से भरा-पूरा था। उसके ससुराल में सभी रीति-रिवाज एवं परम्पराओं को मानने वाले थे। उसके साथ हीं छुआछूत जैसी कुप्रथा का भी उसके घर में प्रचलन था। परिवार के अधिकतर लोग नौकरी करते थे। इसलिए काम करने के लिए 6० साल की दाई को रखा गया था। उसे सभी काम वाली चाची कहा करते थे।
जी दीदी, आप कुछ कहना चाहती थीं।
हाँ, आज तो मैंने परदा और चादर समेट दिया। कल से तुम्हे खुद करना होगा। अगर चादर और पर्दा कामवाली चाची से छुआ जाता तो तुम्हें फिर से धोना पड़ता और अगर माँ जी देख लेती तो न जाने क्या हो जाता? तुम इस घर का कायदा-कानून जान लो। किसी के घर जाओ तो वापस आकर स्नान करना पड़ेगा। कोई अपने यहाँ आए तो बेड पर बैठने मत दो। छोटी जात-पाँत के शरीर में मत सटना। सत्संग, भागवत चर्चा कहीं से भी आओ तो नहाओ। ना जाने कौन-कौन से जात के लोग वहाँ सुनने को आते हैं और सबका पैर उस दरी पर पड़ता है। “न जाने कितने तौर तरीके, रीति-रिवाज, रहन सहन के बारे में जेठानी ने उसे बताया। और हाँ, माँ जी से पूछे बगैर कुछ नहीं करना! उसने सोचा! विचारा! मनन किया सबकुछ तो ठीक है। जहाँ तक संभव हो साफ-सुथरा रहना चाहिए लेकिन यह जाति-पाँति, ऊँच-नीच लेकर भेदभाव क्यों? यह ठीक नहीं। सभी मनुष्य बराबर है। पंच तत्व से उसका भी शरीर बना है और हमारा भी। जब वही खून, वही हड्डी, वही जिस्म सबका है, जब ईश्वर ने भेदभाव नहीं किया तो हम क्यों करें। “हम छुआछूत के इस बीमारी को हटा कर रहेंगे। कामवाली चाची बहुत इमानदार हैं, दयालु हैं और महज 400 रुपये में इतना काम कर देती है इस उम्र में। उनके प्रति ऐसा विचार?
(उसने मन ही मन कुछ ठान लिया)
घर में उत्सव का माहौल था। पुए पकवान बन गए थे। बहुत सारे रिश्तेदार 12 बजे पहुँच गए रंग खेलने। पड़ोस की सभ्रांत परिवार की महिलाएँ भी।
“हैप्पी होली, हैप्पी होली कहकर सभी ने एक दूसरे को रंग लगाया और गले मिले। मधु ने भी सबके पैर छुए, रंग लगाई और गले मिली। बच्चों को प्रसाद देने जैसे आई तो देखी काम करके चाची जा रही है। वह तेजी से उनकी ओर बढी और प्यार से गले लगाकर कहा- हैप्पी होली चाची! फिर रंग लगाया और पैर छूकर प्रणाम भी की, बोली आप खाना खाने के बाद जायेंगी और आज मैं आपको खाना खिलाउँगी। कोई बात नहीं बेटी अपना घर है। चाची के आँख भर आए। बोली- बेटी आज तक इस मुहल्ले में किसी ने मुझे कभी गले नहीं लगाया। तुमने जो मुझे सम्मान दिया है। उसे कभी नहीं भूलेंगे। हमेशा खुश रहो। शेखर खुश था। लेकिन जेठानी और सासु माँ की आँखें देखने लायक थी।
मनु कुमारी
प्रखण्ड शिक्षिका,
मध्य विद्यालय सुरीगांव
बायसी, पूर्णियाँ
छुआछूत जैसी कुरीति पर चोट करने वालीसुन्दर रचना, Keep it up मनु जी!👌
बहुत बहुत आभार सर!
शिक्षाप्रद और प्ररेणा दायक कहानी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
जेम्स मनोहर बारला
मध्य विधालय डंगराहा घाट बायसी पुर्णिया बिहार
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
प्रेरणादायक संदेश 🙏
अति सुन्दर रचना!पठनीय और प्रेरणादायक!
क्या बात है? बहुत खूब!
Nice story
मनु दी आपकी यह लघु कथा मर्मस्पर्शी है, मैने अपने परिवार के साथ ईसको जिया है। मुझे आपना बचपन याद आ गया।
शहरी या यों कहे शहरी शिक्षित वर्ग में बहुत कुछ बदलाव आया है ।लेकिन सफर अभी बहुत लम्बा है।
एक विचारोत्तेजक कथा
धन्यवाद
यह रचना रूढ़िवादी सोच रखने वालों के मुँह पर एक तमाचा है। धन्यवाद
आपकी लेखन शैली मुझे फणीश्वरनाथ रेणु जी की याद दिलाती है…बहुत खूब..,👍👍
सुंदर लेख
हार्दिक धन्यवाद सर!
बहुत सुन्दर।।छुआ छूत और जाति पाती पर करारा प्रहार।।हार्दिक बधाई।।
आप सभी का हृदय तल से आभार🙏🙏