हरिवंश राय बच्चन
हरिवंशराय बच्चन का जन्म 27 नवम्बर 1907 को इलाहाबाद के पास प्रतापगढ़ जिले के अमोढ़ा गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम कामता प्रसाद तथा माता का नाम सरस्वती देवी था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा सरकारी पाठशाला एवं कायस्थ पाठशाला और बाद की पढ़ाई गवर्नमेन्ट कॉलेज इलाहाबाद और काशी हिन्दू विश्व विद्यालय में हुई। 1926 को 19 वर्ष की उम्र में इनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ। वे 1941 से 1952 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे। उन्होंने1952 से 1954 तक इंग्लैंड में रहकर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पी० एच० डी० की डिग्री प्राप्त की। कैम्ब्रिज से लौटकर उन्होंने एक वर्ष तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपने पूर्व पद पर काम किया।1956 में वे इलाहाबाद छोड़ कर दिल्ली चले आये तथा विदेश मंत्रालय में अंडर सेक्रेटरी का पद ग्रहण कर लिया। वे दस वर्ष तक विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ के पद पर रहे। 1966 में उन्हें राज्यसभा के लिये विशेष सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया। अंग्रेजी साहित्य में डॉक्ट्रेट की उपाधि लेने के बाद भी उन्होंने हिन्दी को भारतीय जन की आत्मा की भाषा मानते हुए उसी में साहित्य सृजन का फैसला किया और आजीवन हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में लगे रहे। डॉ०बच्चन को उनकी कृति “दो चट्टाने” पर 1968 में हिन्दी कविता का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। बिड़ला फाउंडेशन ने उनकी आत्मकथा के लिए उन्हें सरस्वती सम्मान दिया था और 1968 में ही उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और एफ्रो-एशियाई सम्मेलन के स्वर्ण कमल पुरस्कार से भी नवाजा गया। पद्मभूषण से सम्मानित डॉ० बच्चन के लम्बे साहित्यिक जीवन की महत्वपूर्ण उलब्धियों में मधुबाला, मधुकलश, मिलन-यामिनी, आकुल अंतर, निशा-निमन्त्रण, सूत की माला और चार खंडों में आत्मकथा-“क्या भूलूँ, क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर से, बसेरे से दूर तथा दशद्वार से सोपान तक प्रमुख हैं। उन्होंने महान अंग्रेजी नाटककार शेक्सपियर के दुखांत नाटकों का हिन्दी अनुवाद किया तथा “चौसठ रूसी कविताएँ” के नाम से रूसी कविताओं का हिन्दी संग्रह प्रकाशित किया लेकिन उनकी सबसे महत्वपूर्ण रचना 1935 में प्रकाशित “मधुशाला” मानी जाती है जिसने उन्हें जन जन का प्रिय कवि बना दिया। इस कविता ने न सिर्फ काव्य जगत में एक नया आयाम स्थापित किया वरण वह आज भी लोगों की जुबान पर चढ़ी हुई है।डॉ० बच्चन ने सरल लेकिन चुभते शब्दों में साम्प्रदायिकता, जातिवाद और व्यवस्था के खिलाफ फटकार लगाई है। शराब को जीवन की उपमा देकर उन्होंने मधुशाला के माध्यम से एकजुटता की सीख दी है। कभी उन्होंने हिन्दू और मुसलमान के बीच बढ़ती कटुता पर कहा-
मुसलमान औ हिन्दू हैं दो,
एक मगर उनका प्याला,
एक मगर उनका मदिरालय
एक मगर उनकी हाला।
दोनों रहते एक न जबतक
मन्दिर-मस्जिद में जाते,
बैर बढ़ाते मन्दिर-मस्जिद
मेल कराती मधुशाला।।
जातिवाद पर करारी चोट करते हुए उन्होंने लिखा–
कभी नहीं सुन पड़ता इसमें
हाँ छू दी मेरी हाला,
कभी नहीं कोई कहता उसने
जूठा कर डाला प्याला।
सभी जाति के लोग यहाँ पर
साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है,
काम अकेली मधुशाला।।
डॉ० बच्चन का हालावाद दरअसल यह बताता है कि मदिरा और अन्य तत्वों को हटाकर जीवन को किस तरह समझा जा सकता है। जीवन के मूल सिद्धान्तों पर भी मधुशाला के माध्यम से रोशनी डाली गयी है कि किस तरह आप एक राह पकड़कर अपनी मंजिल हासिल कर सकते हैं। उन्होंने लिखा है-
मदिरालय जाने को घर से
चलता है पीने वाला,
किस पथ से जाऊँ असमंजस
में है वो भोला-भाला।
अलग अलग पथ बतलाते पर
मैं ये बतलाता हूँ,
राह पकड़ तू चला चल
पा जाएगा मधुशाला।।
अपनी इस मधुशाला के लिये डॉ० बच्चन को बहुत सारी आलोचनाएँ भी सहनी पड़ी।
बच्चन जी का देहान्त 18 जनवरी 2003 को रात 11 बजकर 40 मिनट पर अपने पुत्र अमिताभ बच्चन के मुम्बई स्थित आवास पर हो गया। सभी को इस दुनियाँ से एक दिन जाना है। इस कटु सच को उन्होंने बड़ी सहजता से मधुशाला में स्वीकार किया है-
छोटे से जीवन में कितना प्यार करूँ,
पी लूँ हाला।
आने के ही साथ जगत में
कहलाया जाने वाला।।
इस सच को साकार करते हुए “जानेवाला” चला गया परन्तु उनकी साहित्यिक कृतियाँ हमारे सामने हैं जो उन्हें युगों-युगों तक अमर रखेगी।उनके चले जाने से जो साहित्य के आकाश में एक सूनापन उभर आया है उसे भर पाना शायद समय के लिए भी कठिन होगा। यद्यपि उन्होंने अपने एक चर्चित कविता “जो बीत गयी सो बात गयी” में कहा है-
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था।
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छुटे
जो छूट गये फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारे पर
कब अम्बर शोक मनाता है।
सच में, तारे के टूटने पर अम्बर शोक नहीं मनाता है लेकिन कभी यदि चाँद टूट जाए तो अम्बर जरूर शोक में डूब जाएगा।
उनके मृत्यु पर किसी ने लिखा है-
“साकी छूटे, प्याले टूटे,
मौन हो गई मधुशाला।
तो किसी ने ये कहा-
त्रेता बीता, द्वापर बीता
बीत जाएगा कलयुग भी,
पर युगों-युगों तक याद रहेगी
बच्चन तेरी मधुशाला।”
हर्ष नारायण दास
मध्य विद्यालय घीवहा (फारबिसगंज)
अररिया
बहुत ही उत्कृष्ट और सराहनीय आलेख ।