जानकी चाची
उत्तरप्रदेश के फूलपुर, जहाँ से कभी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री भारतरत्न पंडित जवाहरलाल नेहरु सांसद हुआ करते थे, कई मायने में मेरे लिए अविस्मरणीय है। उसमें से एक है अंदाव गाँव की जानकी चाची। लंबाई लगभग 6 फीट, गेहुआँ रंग, गठीला शरीर, स्पष्ट दमदार बातें, प्रभावी आकर्षक व्यक्तित्व, कार्य भी आश्चर्यजनक! अनपढ़ लेकिन पढ़े लिखे लोगों से बहुत अधिक समझदार। जीवन के संघर्ष और उत्कर्ष के साथ विजय की अद्भुत कहानी।
बात लगभग 26 वर्ष पुरानी है। फरवरी का महीना था। ठंड़ कम हो चली थी। वसंत शुरू हो गया था। मस्त पवन, फूल, उपवन, मोर-मोरनी सब वसंत की गवाही दे रहे थे। मैं अपने संबंधी के यहाँ शादी के उत्सव में सम्मिलित होने गई थी। तिलक से बारात तक लगभग एक हफ्ते का फासला था। ग्रामीण परिवेश, कच्चे रास्ते, गाँव की गालियाँ, रात में रौशनी का अधूरा इंतज़ाम और तमाम तरह की परेशानियों के बीच अद्भुत आनंद।
हल्दी की रश्म चल रही थी, मंगल गीत हो रहा था। जानकी चाची भी आईं थी लेकिन उन्हें हल्दी का अधिकार नहीं था। वो अति उत्साह से रश्म के दौरान मंगल गीत गा रही थी। रश्म पूरी हुई, सब लोग धीरे- धीरे जाने लगे। जानकी चाची भी जाने लगी। जाते- जाते तनिक रुककर बात करने लगी। मैं सहज ही आकर्षित हो रही थी। मानो किसी ने मोहपाश में मुझे बाँध रखा हो। धीरे धीरे मन में बातें उतरने लगी। मेरे सामने खड़ी महिला सामान्य नहीं बल्कि वह तो अद्भुत कर्मयोगी, अनंत राज दबाये कर्मपथ पर लगातार अग्रसर जानकी चाची थी।
जब आस-पास के लोगों से बात हुई तो सबकी नजर में जानकी का साहस, पराक्रम और सूझ-बूझ अद्वितीय और अनुकरणीय था। मुझसे रहा नहीं गया। मैनें निर्णय लिया कि स्वयं जानकारी लेकर तहकीकात करूँगी और तब निर्णय लूँगी या कोई विचार बनाउंगी। दूसरे दिन मैं चाची के घर गई। मिट्टी का सुंदर साफ सुथरा खपरैल का घर। आँगन में कई महिलाएं। कुछ के गोद में दुधमुहाँ बच्चा! कपड़े के भीतर से झाँकता शरीर। मुफलिसी में भी चेहरे पर अद्भुत संतोष, चाची से अपेक्षा, मानों चाची धरती पर अवतरित हनुमान हो जो सबका संकट हर लेगी। चाची को घेरकर बैठी, कुछ आगे, कुछ अगल-बगल, आंगन पूरा भरा था। चाची छोटे से खटोले पर विराजमान। चाची एक-एक कर सबको बुलाती, सबसे बात करती और समस्या का समाधान करने की कोशिश करती हुई मन के अद्भुत सौंदर्य से लबरेज। किसी को सिलाई का हुनर सिखाने तो किसी को उसके योग्यता के अनुसार बेसन की बरी चरौरी इत्यादि का काम बाँटती। किसी के पारिवारिक उलझनों को सुलझाने का प्रयास करती। मैं अभिवादन के बाद थोड़ी दूर जाकर बैठ गई और चाची को इशारे से बताया कि मैं ठीक हूँ आप अपना काम करें। चाची थोड़ा किंकर्तव्यविमूढ़ हुईं लेकिन मेरे आश्वासन के बाद धीरे-धीरे सहज हो गईं। मेरे लिए ये अद्भुत सकून, चिंतन-मनन के पल थे। मैं इस सुदूर गाँव में ग्रामीण परिवेश की सुधा रश्मि को निहार रही थी और सोच रही थी कि आखिर संसाधनविहीन इस गाँव में जनकी किस प्रकार वर्षों से निःस्वार्थ सेवा कर रही है जबकि स्वयं बिपदा से घिरी विधवा, निःसंतान और अस्वस्थ लेकिन दूसरे अनेकों के लिए संबल और साहस की प्रतिमूर्ति।
वस्तुतः जानकी की शादी 12 वर्ष की कच्ची उम्र में उम्रदराज संतोष बाबू से हुई थी किन्तु विधि को यह भी मंजूर नहीं था और शादी कर घर लिवाने के तीन दिन के बाद ही फूलपुर जाते समय संतोष बाबू की आकस्मिक मृत्य रोड एक्सीडेंट में हो गई। सास-ससुर पहले ही नहीं थे। कोई देवर भी नहीं। जानकी पर दुखों का पहाड़ टूट गया। सब कुछ बिखर गया। नया गाँव, नई दुल्हन, विधवा, घर में कोई नामलेवा नहीं। आखिर कैसे किस विधि इस समाज को समझाए, खुद क्या करे, कहाँ जाए, क्या रोये, किससे कहे, तप्त तृषित मन की प्यास, असंख्य सपनों का संसार सब कुछ स्वाहा। अभी तो गुड्डा-गुड़िया का खेल भी ठीक से पता नहीं था कि विधि नें खूंखार समाज के सामने मानो फेंक दिया, बिल्कुल निरीह। अकारण सामाजिक प्रताड़ना, लांछन सहने को विवश!
अभी तो शैशवावस्था ही थी कि विवाह संस्कार में बँधी नवतारुण्यता को धारण करने को अग्रसर जानकी विधवा हो गई, बाल विधवा! आगे पीछे कोई नहीं, समाज के ठेकेदारों की अपनी ठकुराई के बीच सिसकता बचपन, तड़पता यौवन और हृदय की दुरुहतम अवस्था में फँसी नन्हीं जानकी। पति, समाज, ससुराल कुछ भी ज्ञात नहीं बसने से पहले उजड़ा घर-संसार। वैसे में संघर्ष, स्वयं से, समाज से, संसाधन से, रीति रिवाजों से और निष्ठुर विधि के विधान से।
जब मैनें जानना चाहा कि फिर क्या हुआ। आंखें पथरा गईं। जानकी निस्तब्ध! फिर! डबडबाई आँखों से बोली। जिनगी कबहु कहा रुकत हउ.. (जिंदगी कभी कहाँ रुकती है) .. जानकी बोली कि कुछ दिनों में उन्होंने जिंदगी से मुकाबले का मन बनाया। सामाजिक मर्यादा के कारण दूसरी शादी का निर्णय नहीं ले पाई लेकिन अपना परिवार बड़ा करने का फैसला किया और दुखी और गरीब महिलाओं के साथ जुड़ने का फैसला किया। यह मेरे मन के करीब था। यह काम बहुत कठिन था और शुरू में तो गाँव के लोगों नें मेरा विरोध किया। मेरा छोटा भाई जो मेरी शादी के समय 10 वर्ष का था, मेरे साथ रहता था। मेरे पिता भी आया जाया करते थे। वैसे वो मुझसे (जानकी) से नाराज थे कि मैनें अपने मायके (नैहर) में रहने से मना कर दिया था, लेकिन धीरे-धीरे मान गए। जानकी ने बताया कि घटना के लगभग पाँच-छः वर्षों तक सबकुछ तीतर-बितर रहा। कुछ अन्न भी बटाईदार के यहाँ से आ जाता था। बाबूजी यह सब देखते थे। लेकिन धीरे-धीरे बाबूजी भी कमजोर होने लगे थे। लगा कि सब खत्म हो जाएगा। गोतिया के लोग जमीन पर दखल करने लगे थे। लेकिन तब-तक मैं गाँव की कुछ महिलाओं से जुड़ गई थी। अब स्थिति थोड़ी-थोड़ी समझने लगी थी।
उम्र और परिस्थिति के इस पड़ाव पर मैनें (जानकी ने) मजबूर और गरीब प्रताड़ित औरतों की सेवा का संकल्प लिया। स्त्रियों के लिए सुलभ कार्यों को करवाने के लिए छोटे-छोटे समूह बनाये। उन्हें अलग-अलग कामों में लगाया और उसके उत्पादन को बाज़ार पहुंचाने का इंतजाम किया। क्रमशः आमदनी बढ़ने लगी और जुड़ने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ती गई। अब (उस समय) 40 समूह है जिसमें 400 महिलाएं हैं और कई हजार का महीनें का कारोबार है। जानकी बड़े गर्व से बता रही थी। कहते-कहते कभी आनंदित होती और कह उठती आज मेरा परिवार 400 परिवारों का समूह है। मैं सबकी चाची ..बड़ों की भी छोटों की भी। बड़े प्यार से सब मुझे रखते हैं। ये सब मेरे हैं और मैं इन सबकी। मेरा दर्द ही मेरे जीवन का आधार है और मेरे ये लोग मेरी दवा। बताओ जरा मेरा परिवार कैसा लगा? चाची अचानक अतिआनंद और गर्व से बोली।
मेरी तंद्रा अचानक टूटी। मैं सामने बैठी अदम्य साहसी कर्मयोगिनी महामाया का दर्शन कर अभिभूत थी। मुझे जानकी में वह जीवन दायिनी शक्ति दिखी जिसकी कल्पना मैनें नहीं की थी। मैं यदि आकर मिली नहीं होती तो मेरे लिए पतियाना (विश्वास कर पाना) आसान नही था। बारह वर्ष की आयु में शादी के तुरंत बाद बाल-विधवा नारी शक्ति का आपार विन्यास देख मैं अभिभूत थी । मैं सोच रही थी कि दो-चार पुस्तकें पढ़ हम सब अपनी विद्वता का दम्भ भरते हैं, क्या कबीर ने स्कूल या मदरसे में कोई शिक्षा ली थी। ऐसे असंख्य मनीषियों का नाम हमसब ले सकते हैं जिन्होंने अनौपचारिक शिक्षा के बिना भी जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझा, और मानव कल्याण हेतु अपना सर्वस्व होम किया और इस समाज को जीवन दान दिया। जानकी चाची भी उनमें से एक थी। जब-जब उनकी याद आती है तब मुझे अपने जीवन के संघर्ष बौने लगते हैं। मैं संघर्ष के कठिन पलों में जानकी चाची को याद करती हूँ, कठिन पल स्वतः उड़न छू हो जाते हैं और विजय श्री चरण चूमती है।
डॉ. स्नेहलता द्विवेदी ‘आर्या ‘
मध्य विद्यालय शरीफगंज
कटिहार बिहार