कंजूस सेठानी
बात बर्षों पुरानी है। किसी गाँव में एक कंजूस सेठानी रहती थी जिसके दो बच्चे थे, एक लड़का और एक लड़की। सेठानी का पति हमेशा कारोबार के सिलसिले में बाहर ही रहता था। सेठानी के गाँव में भी इतने जमीन जायदाद थे कि वो उसकी देखभाल अपने बटेदारों के द्वारा करवाती थी। सेठानी इतनी कंजूस थी की पति जितने भी पैसे देता वो उसके सारे पैसे ब्याज पर लगा देती थी। इसी तरह वर्षों बीत गए। कुछ दिन के बाद उसके बेटे की शादी हो गई। चाँद जैसी बहू पाकर पूरा घर खुश था। बहू अपने सेठ ससुर की लाडली थी। वो जो भी मुँह से निकालती सेठ अपनी पत्नी से कहकर पूरा करवाता था। कुछ दिन इसी तरह चला। कंजूस सेठानी को यह बात हजम नहीं हो रही थी। फिजूल खर्चे से उसके दिल की धड़कन रुकी जा रही थी और वो सेठ के बाहर जाने का इंतजार करने लगी थी। कब बागडोर मेरे हाथ में आए। ऐसा ही हुआ। सेठ कुछ दिन बाद अपने कारोबार के सिलसिले में बाहर चला गया। अब सेठानी हर खर्च पर बंदिश लगाने लगी और बहू को समझाने लगी- देखो बहू, ज्यादा रईसी में जीने से कुछ हासिल नहीं होता है! हर खर्च को आधा करो। रसोई में भी हाथ कसो। चार सब्जी की जगह एक सब्जी बनाओ और इन सबसे जो पैसा बचेगा उसको ब्याज पर लगाएँगे जिससे तुमको आगे चल कर धन की कोई कमी नहीं होगी। पर हाँ एक बात, “ये सारी बातें अपने ससुर को मत बताना”, वो जब रहेंगे तब कुछ दिन मन की खा-पी लेना।यह सुनकर बहू शांति से सर झुका दी।
धीरे-धीरे वक़्त बीतता गया। बहू जब भी कहीं घूमने और कुछ खरीदने के लिए पैसे मांगती तो सासू माँ फिजूल खर्च बताकर मना कर देती। बेचारा बेटा भी माँ के बातों का उलंघन नहीं कर पता था। कुछ समय बीत गया एक दिन अचानक सेठानी बीमार पड़ गई और ठीक तरह से बोल पाने में भी असमर्थ हो गई।तब उसे लगने लगा कि शायद ये मेरी आखिरी घड़ी है। वो किसी तरह बेटे को बुलाई और गाँव के कुछ लोगों को बुलाने कही। सभी लोग दौड़े आये कि पता नहीं मालकिन को क्या हो गया है? जब आये तो देखे ये तो मरण अवस्था में आ गई है और उनके प्राण भी नहीं निकल रहे है, पता नहीं क्या कहना चाह रही है? वो बटेदारों और ग्रामीणों को देखकर खुद को सम्भालती हुई बोली- मैं जितने भी पैसे तुमलोगों को दी थी वो मेरी बहू को सूद सहित लौटा देना। यह सुनकर सारे लोग हाथ जोड़ लिए और बोले “मलकिन अब आप भगवान के घर जा ही रही है तो हमलोग भी वहीं आकर हिसाब दे देंगे”, अभी के लिए माँफ कर दीजिये। इसपर सेठानी इशारे से अपनी जुबान को बाहर निकाल कर बोली इसको बहुत मोड़ कर तुम लोगों को पैसा दी थी। यह बोलते-बोलते ही वो स्वर्ग सिधार गई। यह देखकर बहू टक-टकी लगाकर सास को देखती रह गई! जैसे कह रही हो “पूरी जिंदगी न खुद शौक से जी और न मुझे जीने दी बस धन-धन करती चली गई।”
आँचल शरण
प्रा. वि. टप्पूटोला
बयसी पूर्णिया बिहार
बहुत सुंदर रचना 👌👌👌💐💐💐
बहुत ही सुन्दर रचना 👌👌👌
बहुत उत्कृष्ट लेखनी आपकी 👌👌
उत्कृष्ट लेखनी आंचल जी ।👌
Bahut hi acchi rachna..Bahut khub..👌👌👌👍👍
Educational and heart touching story