दिनभर की थकान के उपरांत भोजन और फिर सोने का समय।आँखों में गहरी नींद छाई हुई थी। हमसब अपने बिस्तर की ओर जा रहे थे। बच्चे सो गए थे। गाँव के कुछ बुजुर्ग अर्ध निंद्रा में बीच बीच में रामनाम ले रहे थे। सर्द हवा चल रही थी। कहीं कहीं खटिया के पास बोरसी लगाकर ठंढक को दूर भगाने का प्रयास कर रहे थे।
मैं घर के दरवाजे को बंद करने के लिए बरामदे से गुजर रही थी।सामने कुछ दूर धुंआ-धुंआ सा दिखा। यकीन करना मुश्किल! कहीं बड़का चाचा के यहाँ.., नहीं ..नहीं .. तो ..यह धुआँ कैसा..
दरवाजे से तनिक ठिठकी तो पता चला कि मेरी शंका निर्मूल न थी। मैनें जोर से आवाज लगाई। अरे बड़का चाचा .. के घर में आग लग गइल..। दौड़ीं..दौड़ीं.. सबलोग..
मैं इस कल्पना से ही सिहर उठी की बड़का चाचा के घर में बस दो बुजुर्ग हैं एक चाचा और चाची। चाचा खाट से उठ नहीं पाते और चाची की भी उम्र हो चली। आखिर यह आग कैसे ..
अरे क्या हुआ.. सुरेन्द्रजी मेरे देवर दौड़े। तबतक मैं बाल्टी लेकर छत पर नल के पास पहुंचने को थी।
दौड़िये ..चाचा के घर में आग लागल बा। सबलोग दौड़े, मैं छत से उनके छत पर चली गई। हमदोनों के छत सटे हुए थे। चाची सोई हुईं थी। चाचा के खटिया के पास रखो बोरसी और रजाई भभक रही थी। चाचा हिल-डुल नहीं पाते थे। सभी लोग उनके दरवाजे से घुसने के प्रयास में थे। लेकिन आखिर खोलता कौन? मैनें छत से जोर की आवाज लगाई। मैं और सोनू छत की सीढ़ी से आँगना में दाखिल हुए। सोनू जैसे तैसे चाचाजी की खाट बाहर खींच रहे थे, मैनें चाची को उठाया और ड्रम का पानी हमने भभकती आग पर पूरी ताकत से उड़ेलना शुरू किया। तबतक मुख्य दरवाजे को तोड़कर सुरेन्द्रजी और गाँव के कई लोग अंदर दाखिल हो चुके थे। जिसके पास जल का जो उपाय था। सबलोगों नें मिलकर आग बुझाई। चाचा सुरक्षित थे। बहुत नुकसान हो चुका था। कपड़े, रजाई, तोसक, सुजनी आदि सब जल गए थे। चाची नें जिस रजाई को ओढ़ रखा था वो भी आंशिक जल चुकी थी। चाचा की चादर भी..
लेकिन संतोष था कि किसी की जान नहीं गई और शरीरिक नुकसान भी नहीं हुआ। मैं आश्चर्य में थी कि आखिर यह प्रति उतपन्न मति मुझे कैसे आई कि मैं छत की पतली दीवर पार कर सोनुजी के साथ आँगन में आ गई। यदि अन्य लोग समय से भीतर नहीं आते तो क्या आग बुझ पाती ? आखिर मैं इस प्रकार का साहस कैसे जुटा पाई कि जोखिम भरे इस पुनीत कार्य हेतु स्वयं को समर्पित कर दिया। मैं उस पल धन्य हो गई जब बड़का चाचा की आँखें टुकर टुकर मुझे निहारती हुई डबडबा गईं और रुँधे गले से कहा बेटा हमेशा खुश रहो। अपना हाथ उठाकर मुझे आशीर्वाद दिया।मैं धन्य हो गई।
डॉ स्नेहलता द्विवेदी “आर्या”
उत्क्रमित कन्या मध्य विद्यालय शरीफगंज, कटिहार