सम्राट अशोक मौर्य : युद्ध से धम्म तक की यात्रा- सुरेश कुमार गौरव

भारतवर्ष के इतिहास में जब भी एक ऐसे सम्राट की चर्चा होती है जिसने केवल तलवार की धार से नहीं, बल्कि करुणा, शांति और नैतिकता के मूल्यों से सम्पूर्ण राष्ट्र और विश्व को प्रभावित किया — तो वह नाम है सम्राट अशोक महान। वे न केवल एक कुशल विजेता थे, बल्कि आत्मबोध के बाद उन्होंने जो धर्म-प्रेरित शासन चलाया, वह उन्हें अन्य सम्राटों से विलक्षण बनाता है।

बाल्यकाल एवं युवावस्था: अशोक का जन्म लगभग 304 ई.पू. में हुआ। वे मौर्य वंश के महान सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के पौत्र और सम्राट बिंदुसार के पुत्र थे। अशोक का बाल्यकाल राजकुल में शिक्षा, युद्धकला, राजनीति और धर्मशास्त्र के गहन अध्ययन में बीता। वह अत्यंत बुद्धिमान, साहसी और दूरदर्शी थे, किंतु उनके कठोर स्वभाव और स्पष्टवादी प्रवृत्ति के कारण उन्हें बिंदुसार का विशेष स्नेह प्रारंभ में प्राप्त नहीं हुआ। परंतु उनके संगठन कौशल और वीरता ने उन्हें विद्रोहग्रस्त तक्षशिला और अन्य क्षेत्रों के शासन का भार सौंपा। वहाँ उन्होंने अपने नेतृत्व से शांति और व्यवस्था स्थापित की, जो उनकी राज्यकला की परिपक्वता को दर्शाता है।

राजगद्दी और साम्राज्य विस्तार: सम्राट बिंदुसार के निधन के उपरांत अशोक ने लगभग 273 ई.पू. में सत्ता संभाली, किंतु कुछ विद्वानों के अनुसार उनके वास्तविक अभिषेक में चार वर्षों की विलंब हुआ (269 ई.पू.)। अशोक के शासनकाल में मौर्य साम्राज्य अपनी भौगोलिक सीमाओं के चरम पर पहुँचा — उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गोदावरी तक, पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में हिंदूकुश पर्वत तक उनका प्रताप स्थापित हो गया।

कलिंग युद्ध : एक आत्मबोध की आंधी– सम्राट अशोक के जीवन का सबसे निर्णायक मोड़ 261 ई.पू. में हुआ, जब उन्होंने स्वतंत्र राज्य कलिंग पर चढ़ाई की। युद्ध के बाद भयंकर जनहानि हुई — लगभग एक लाख से अधिक लोग मारे गए, लाखों घायल और निर्वासित हुए। अशोक ने जब युद्ध के बाद उस भीषण दृश्य को देखा तो उनका हृदय भीतर से हिल गया। विजय तो मिली, पर आत्मा हार गई। उन्होंने कहा —

“अब मैं दिग्विजय नहीं, धर्मविजय करूंगा।”

यही वह क्षण था जिसने एक प्रतापी सम्राट को ‘धम्माशोक’ बना दिया।

धम्म की अवधारणा और शासन नीति: सम्राट अशोक ने बुद्ध के उपदेशों को आत्मसात किया, परंतु उनका धम्म केवल बौद्ध धर्म का अनुकरण नहीं था। यह था – सत्य, अहिंसा, करुणा, संयम और आत्मशुद्धि का मार्ग। सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता। प्रजा के प्रति मातृवत व्यवहार। युद्ध की बजाय नैतिक संवाद और न्याय पर आधारित शासन।

उन्होंने अपने शिलालेखों में प्रजा को ‘जनता नहीं, संतान’ कहा।

उन्होंने धम्म महामात्र नियुक्त किए — जो जनता के नैतिक मार्गदर्शन के लिए नियुक्त होते थे। यह उनकी प्रशासनिक सूझबूझ और आध्यात्मिक दृष्टि दोनों को प्रकट करता है।

सांस्कृतिक एवं वैश्विक योगदान: सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा। वहाँ राजा तिस्स और जनता ने बौद्ध धर्म को अपनाया। यह पहला उदाहरण था जब भारत का सांस्कृतिक प्रभाव बिना तलवार के विश्व में फैला।

अशोक के काल में भारत से अफगानिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, मिस्र, यूनान तक बौद्ध दर्शन की किरणें पहुँचीं। उनका संदेश आज भी “धम्म चक्र प्रवर्तन” के प्रतीक रूप में भारत के राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह में सम्मिलित है।

शिलालेख, स्तंभ और कला: अशोक का शासन लेखन और स्थापत्य की दृष्टि से भी स्वर्णकाल था। उन्होंने ब्राह्मी लिपि में शिलालेख खुदवाए, जो जन-संपर्क का एक क्रांतिकारी रूप था।

सारनाथ का सिंह स्तंभ: सांची, भरहुत, लौरिया नंदनगढ़, गिरनार, दौली, खालाटेकड़ी जैसे स्थानों पर मिले अभिलेख— उनके शासन की नीति, धर्म, समरसता और प्रशासन की झलक देते हैं।

निष्कर्ष : सम्राट अशोक – समय से आगे का शासक

सम्राट अशोक ने सत्ता को सेवा का माध्यम बनाया। वे राजा नहीं, धार्मिक विचारों के संवाहक बने। उनका व्यक्तित्व इस बात का प्रमाण है कि आत्मबल, विवेक और करुणा से इतिहास बदला जा सकता है। आज जब विश्व संघर्षों, युद्धों और नैतिक विघटन से जूझ रहा है, तब सम्राट अशोक की धम्म नीति हमें पुनः स्मरण कराती है कि “सत्य की विजय तलवार से नहीं, आत्मा की करुणा से होती है।”

समर्पित — इतिहास को दिशा देने वाले उस महान सम्राट को, जिसने युद्ध से धम्म, और सिंहासन से साधना की ओर यात्रा की।

-सुरेश कुमार गौरव, प्रधानाध्यापक

उ.म.वि.रसलपुर, फतुहा, पटना (बिहार)

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