त्याग और बलिदान
(यह कथा विद्यालय सम्बंधित है जिसमें श्यामपट, चॉक और डस्टर आपस में वार्तालाप करते हैं।)
श्यामपट: नमस्कार भाई साहेब नमस्कार।
चॉक: नमस्कार! नमस्कार!कहिये जनाब कैसे बीत रहा है।
श्यामपट: बस भाई साहेब यूँ ही जैसे-तैसे दिन कट रहा है। जैसे जल बिन मछली।
डस्टर : प्रणाम दीदी जी, प्रणाम भाई जी।
श्यामपट: प्रणाम, प्रणाम!
चॉक: दीदी जी एक बात कहूँ।
श्यामपट: कहो ! हाँ. हाँ क्यों नहीं। खुल कर बोलो क्या बात है?
चॉक: दीदी आप कितनी शक्तीशाली हैं। धैर्य भी आप में कूट-कूटकर भरा हुआ है। आप हर बात को कैसे सह लेती हैं।
श्यामपट: हाँ! सो तो है। क्या करें। इतना सब तो होते रहता है।
चॉक: दीदी! जब मैं आप पर चलता हूँ तो मैं भी अपना आपा खो देता हूँ। पता ही नहीं चलता। चलते बस चलता ही जाता हूँ।
श्यामपट: अरे पगले! तू तो अपना फर्ज निभा रहा है। मुझे इससे बड़ा आनन्द आता है।
मैं तो चाहती हूँ और लिखे और लिखे। मुझे बड़ा गर्व होता है। मेरी बांछें खिल जाती है।
डस्टर: जी दीदी! मैं भी आप पर बहुत ज्यादा अत्याचार करता हूँ। चाहूँ तो एक ही बार हल्के हाथ से सहला कर आप पर बनाये चित्र, अंकित शब्द या अक्षर को साफ कर सकता हूँ। पर
नहीं बार-बार घिसे जा रहा हूँ। कभी हल्के हाथ से तो कभी अपनी पूरी जोश से रगड़े जा रहा हूँ। ऐसा लग रहा है जैसे कि कितनी साल
की पुरानी दुश्मनी का बदला ले रहा हूँ।
श्यामपट: न-न! ऐसा मत बोल मेरे भाई। अरे तू तो वह महान कार्य कर रहा है जिससे हमारे बच्चों का भविष्य सँवर जायेगा। मुझे
तुझे देख बहुत तरस आता है। मुझे सुन्दर दिखने के लिए अपनी शक्लें खराब कर लेता है। यहाँ तक कि तू अपनी चमड़ी तक उधेड़ लेता है।
डस्टर: सच में तू महानता की देवी है। इतना सब कैसे कर लेती है।
चॉक: दीदी! मैं भी कुछ कम नहीं आपसे दुश्मनी करता हूँ। चाहूँ तो कम जगह लेकर ही मैं सिमट जाऊँ पर नहीं हो पाता है। कभी-कभी मैं इतना उलझ जाता हूँ कि एक ही चारित्र को बार-बार दर्शा कर ही हार मनता हूँ।
श्यामपट: अरे तू तो बड़ा ही बुद्धु है। क्यों अपने ऊपर इतना सारा सदमा ओढ़ लेता है। भाई ये तुम्हरा फर्ज है। तुम्हें करना पड़ेगा। मेरी चिन्ता छोड़। अरे! बिना त्याग और बलिदान का कुछ सफल हुआ है इस दुनियाँ में। कहा जाता है, जितना घिसेगा उतना दिखेगा। तुम्हरा त्याग और बलिदान ही हमारे कर्णधार को ऊँचाईयों की बुलंदी तक पहुँचा सकता है।
डस्टर: दीदी शायद! मेरी हरकत भी आप को रास नहीं आता होगा। आप पर कुछ अच्छा भी लिखा होता है तो मुझे मजबूर होकर उसे भुलाना पड़ता है। बार-बार यह क्रिया मुझे दुहराना पड़ता है। पता नहीं हमलोगों के किस्मत में कुछ अच्छा लिखा ही नहीं गया है।ऐसा लगा रहा है जैसे हम को हमारी दोस्ती पसंद ही नहीं।
चॉक: अरे! भाई तू क्या बोल रहा है तुम तो बहुत अच्छा करते हो, बच्चों को
स्वच्छता का पाठ पढ़ाते हो। हमें हमेशा साफ-सुथरा रहना चाहिए। गलती तो मैं किये जा रहा हूँ। कभी इतनी छोटी तो कभी बहुत बड़ा। दोंनो ही स्थिति में भुगतना तुम्हीं को पड़ता है। छोटा लिखा गया तो पीछे वाला परेशान, बड़ा लिखा गया तो लिखावट की तोहिन, गलत लिखा गया तो तुम तो और बेचैन। बस तुम आस लगाये रखते हो कब हमें मौका मिले इतनी तत्पर
रहते हो। अरे ये जोश तुम्हें दिया किसने, क्या तुम थकती नहीं हो मेरे वीर-जवानो? तुम्हें तो स्वच्छता-मिशन की उपाधि मिलनी चाहिए।
डस्टर: भाई! ये सब तुम्हीं से तो सीखा है। मैं देख रहा हूँ किसी की भलाई के लिए अपने आपको कुर्बान कर देते हो। किसी की परवाह नहीं करते। ऐसा दम किसी योद्धाओं के काफिले में नहीं होगा जो एक-एक करके अपने प्राणों की आहुति दे। किसी ममता में इतनी साहस नहीं की एक के बाद एक को रणक्षेत्र में भेंट चढ़ाए।
चॉक: नहीं भाई! नही बस थोड़ा सा ही प्रयास कर रहा हूँ। हो सकता है मेरे त्याग से
मेरे मर मिटने से जग में कुछ अच्छा हो जाए यही मेरी कामना है।
श्यामपट : अरे क्या करेगा? ये मानव भी इतना एहशान फरोस है कि किसी की कद्र
ही नहीं इसके नजरिये में, बस अपने ही मनोवृति के विस्तार करने में जुट जाते हैं।
चॉक: क्यों दीदी क्या हुआ? हमारी जातियाँ कुछ कहा आपसे।
श्यामपट: जी! मेरे भाई। ऐसा कुछ नहीं हुआ मेरे साथ पर परिस्थितियों के आर में थोड़ा कुछ तो होना भी जरुरी है।
चॉक: क्यूँ! भूतकाल में ऐसा भी कुछ घटित हुआ है क्या? बताईये न दीदी। जरुर आप
मुझसे कुछ छिपा रहीं हैं।
श्यामपट: जी हाँ! कुछ ऐसा था। जब यह टेक्नोलॉजी का दौर कुछ कम था तो आपके सगे-सम्बंधी इतने नाजुक नहीं हुआ करते थे।
आपके दादा जी को खान से निकाले जाते थे।वह बड़ा ही भयंकर रूप मे दिखता था। उस पर बड़े-बड़े घान से वार कर काबू में किया जाता था। उसमें से जो सफेद और हल्का होता था, उसको हमारे लिए एकत्रित कर लाया जाता था।
चॉक: तब तो वह बड़ा ही कठोर और निर्दय होगा? आप तो बेबस हो जाती होंगी।
श्यामपट: हाँ! मैं तो बड़ी ही बेबस हो जाती थी।पर क्या करते हमें भी कर्तव्य के प्रति विमुख नहीं होना अच्छा लगता था। मेरी सीने को छल्ली-छल्ली कर जाती थी क्योंकि चूना-पत्थर का मिश्रण हुआ करता था।
चॉक: समय के अनुसार अब तो सारी वस्तुओं में कुछ न कुछ बदलाव आ गया है।
श्यामपट: जी हाँ! पहले तो हमारे दो ही प्रजातियाँ हुआ करते थे। एक श्यामपट तो दुसरे हरितपट। परन्तु आधुनिक युग में हमारे एक
और प्रजाति का नवीकरण
हो चुका है जो है श्वेतपट।
चॉक: जी दीदी! यह बदलाव तो मेरे परिवार में
भी हो गया है। हम अपने छवि को बचाने के लिए तरह-तरह के रंगीन, मुलायम और कम घिसने वाले प्रजाति का ही इस्तेमाल करते थे।परन्तु अब आपके उज्जवल भविष्य ने मेरे साम्राज्य को ध्वस्त करने की ठान ली है।
श्यामपट: नहीं भाई! ऐसा कुछ नहीं है। एक तरफ हमारी विरासत को ठेस पहुँचा रही है।हमारी स्थाई करण कम होता जा रहा है। हमारी इज्जत की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है। लगता है हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं। जहाँ मन किया वहाँ खड़े कर दिए। कहीं पेड़ों से लटकाया जा रहा तो कहीं कील के सहारे दीवारों पाए टाँग दी
जाती। हद तो तब होती है जब उसके पास संसाधन की कमी होती है। मुझे उठाकर बाहर कहीं फेंक दिया जाता। जबकि मैं काम के लायक हूँ तब भी।
डस्टर: जी दीदी! मेरा भी तो अब वही हाल है।सिर्फ स्थायी मकानों में ही मेरी चाहत अब तनिक मात्र रह गया है। नये-नये क्षेत्र में जाना हमारा तो बिल्कुल दुर्लभ ही हो गया है। हमारी
भी इच्छा होती है मैं भी बड़े-बड़े सेमिनार में जाऊँ पर यह मेरा सपना ही रह जाता है।
चॉक: ठीक कहा भाई! मैं भी घूमने को तरस जाता हूँ। अब तो कुछ लोग मुझसे
घृणा भी करने लगे हैं। कहता है- ये तो धूल जैसे
लगता है। कुछ धोखेबाज शुद्ध (POP) प्लास्टर ऑफ़ पेरिस के जगह नकली पाउडर का उपयोग कर गंध रहित बना देते जिससे एलर्जी का सामना करना पड़ता है।
श्यामपट: साथियों हमें घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमें उम्मीद है कि जब तक हम हमारे सुदूर गाँव में पठन-पाठन का कार्य चलता रहेगा तब-तक हम सब की याद आती रहेगी। हम सब भी इस चुनौती का सामना
करते रहेंगे। चाहे विज्ञान कितनी भी प्रगति क्यों
न कर ले। हमारी संस्कृति हमारा विरासत।
भोला प्रसाद शर्मा
पूर्णिया (बिहार)
अति सराहनीय