जिम्मेवारी- संजीव प्रियदर्शी

Sanjiv

शादी के तुरंत बाद बिटिया की बिदाई हो रही थी और वह माँ के गले लिपट कर जार-जार रोती जाती थी। ऐसी हालत पिछले कई दिनों से थी उसकी।जब से विवाह का दिन-समय तय हुआ, उसके नेत्रों से अश्रु जल थमते ही नहीं थे।मन के भीतर यह टीस रह-रहकर उठती कि क्या अब टोला-पड़ोस, घर-परिवार और सखी सहेलियाँ सब बिसर जायेंगे उससे? पहाड़ जैसी यह जिंदगी अपनों के बगैर कैसे गुजार पाएगी ससुराल में वह? हालांकि परिवार के लोग ढ़ाढस- दिलासा भी देते कि मैके से कहीं बढ़कर सुख-चैन उसे पति के घर मिलेगा, परंतु उन शब्दों पर जरा भी भरोसा नहीं होता। लेकिन जाना तो था ही। काफी समझाने-बुझाने के बाद रोती-बिलखती लाडली को घरवालों ने बेमन से विदा कर दिया।
लड़की की विदागरी के तुरंत बाद ही जानकी दैया अपना ब्रीफकेस उठाए जाने को उतावली थी। वह सवेरे ही निकलना चाहती थी लेकिन बेटी विदाई के पूर्व जाना उसे कुछ ठीक नहीं लगा।जानकी दैया को अपने घर जाने को बेताब देखकर मँझले भाई ने टोका -‘ इतनी हड़बड़ी काहे दैया? एक तो पाँच वर्षों के लंबे अरसे बाद नैहर आई हो। अभी तो बेटी वियोग के चक्षु नीर नही सूखे हैं तुम्हारी भौजी के और तुम हो कि पिंड छुड़ाने पर तुली हो।’ पास खड़े एक भतीजे ने भी पूछ लिया – ‘बुआ, एक लाडली दीदिया है जो ससुराल जाने के नाम पर सप्ताह भर से कोहराम मचा रखी थी और तुम कौन सी सवासिन हो जो आने के चंद घंटे बाद ही जाने को धड़फड़ा रही हो?’
जानकी दैया मनझमान होकर बोली -‘ बेटा सुदेश, मेरी तो इच्छा कई दिनों तक तुमलोगों के संग-साथ रहने की है। फिर जन्म भूमि से दुराव कैसा? परंतु क्या करुँ, मेरे ऊपर घर की कई जिम्मेवारियाँ हैं। घर में तुम्हारे फूफा जी बीमार हैं। खेतों में कई दिनों से धान के पातन पसरे हैं। एक पतोहू दोपस्ता जान है।पाँच दिन पहले गैया बियाई है और कल छोटी लड़की सुमन को देखने वरतुहार आ रहे हैं,बगैरह। आखिर सब मुझे ही झेलना है।’ दैया की विवशता जान सभी ने भींगे मन से उन्हें द्वार पर लगी कार तक पहुँचा दिया।
संजीव प्रियदर्शी
फिलिप उच्च मा० विद्यालय
बरियारपुर, मुंगेर

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