संत रविदास – डॉ पुनम कुमारी

PUNAM KUMARI



संत शिरोमणि रविदास रामानंद के शिष्य परंपरा के एक ऐसे कवि थे जिनमें निर्गुण भक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी। हिंदी भक्ति कालीन साहित्य में निर्गुण धारा के कवि हैं। उनके विचार अनुसार परमात्मा सर्वशक्तिमान है जो पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है; चंदन के सुगंध की तरह कण-कण में समाया हुआ है। वे धर्म के पथ पर चलने वाले एक ऐसे संत थे, जो समाज से छुआछूत, ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे।उनके सिद्धांत उनके विचार आज भी हमें सत्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं और कर्म के पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देते हैं।

संत रविदास का जन्म- सीर गोवर्धनपुर गांव, जो बीएचयू के पीछे बसा है ,बनारस में 1376 में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। हालांकि उनके जन्म के संबंध में अलग-अलग मत हैं ।कोई 1376, तो कोई 1388 तो कोई 1398 कहता है ,लेकिन उनके जन्म के संबंध में एक दोहा प्रचलित है-

चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी पंदरास।
दुखियों के कल्याण हित प्रकटे श्री रविदास।।

इस्वी सन् और सम्वत् सन् में 57 वर्ष का अंतर चलता है। इस दोहे के आधार पर यदि देखा जाए तो संवत् 1433 इस्वी सन् 1376 ही सही ठहरता है।

उनके जन्म के संबंध में एक किंवदंती है कि रविदास के संतानहीन पिता को किसी महात्मा ने कहा था कि तुम रविवार का व्रत करो तो तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। संत रविदास के पिता ने व्रत किया और रविवार के दिन ही उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।शायद रविवार के दिन जन्म लेने के कारण ही उनका नाम रवि पड़ा होगा और चूंकि तत्कालीन समाज में नीची जाति के लोगों को दास के रूप में देखा जाता था इसलिए उनके नाम के आगे दास जुड़ गया होगा और उनका नाम रविदास पड़ गया। रविदास के अनुयायियों को रैदासी कहा जाता है इसलिए कहीं कहे रविदास को रैदास भी कहा जाता है।
रविदास के माता का नाम कलसा देवी था तथा उनके पिता का नाम संतोख दास (रघु) था। उनकी पत्नी का नाम लोना था तथा उनके पुत्र नाम विजय दास था एवं पुत्री का नाम रविदासिनी बताया जाता है।
बचपन से ही संत रविदास को सत्संगति में बड़ा आनंद आता था। संत- संगति ने उनको व्यवहारिक ज्ञान से परिपूर्ण कर दिया था। पिता के लाख समझाने के बावजूद जब रविदास ने संतों का साथ नहीं छोड़ा, तब थक -हार कर पिता ने रविदास का विवाह कर दिया। विवाह के पश्चात् भी उनके संत समागम में कोई कमी नहीं आई। तब माता-पिता ने थक हार कर, दुखी मन से उनको अपने घर से निकाल दिया। रविदास गांव में ही एक कुटिया बनाकर पत्नी के साथ रहने लगे। वे जूते बनाने का काम करते थे, जो उनका परिवारिक व्यवसाय था।माता-पिता से अलग रहते हुए भी अपना काम पूरी लगन से करने लगे और राम भक्ति में लीन रहने लगे। गरीब बेसहारा लोगों को वे जूते -चप्पल बिना मूल्य चुकाए भी दे दिया करते थे।
रविदास एक निर्गुण कवि थे ।तीर्थ यात्रा और मूर्ति पूजा पर उनका तनिक भी विश्वास नहीं था ।उनका मानना था कि व्यक्ति की आंतरिक भावना और दूसरों के प्रति उसका व्यवहार ही सच्चा धर्म है। उनके संबंध में एक कहानी प्रचलित है कि एक बार उनसे गंगा- स्नान करने के लिए जाने को कहा गया। गंगा – स्नान की बात को उन्होंने यह कहकर ठुकरा दिया कि यदि मैं अपना काम अधूरा छोड़ कर गंगा- स्नान करने जाऊंगा तो मेरा मन अपने काम में लगा रहेगा और इस तरह से मुझे पुण्य प्राप्त नहीं होगा। मेरा काम ही मेरा धर्म है और अगर मन लगाकर अपना काम मैं यहीं पर करता हूं,तो मेरे लिए मेरा घर ही तीर्थयात्रा है तथा मेरे घर का पानी गंगाजल है।कहां जाता है कि गंगा स्नान जाने वाले उन्हीं ब्राह्मणों के हाथों से रविदास जी ने कुछ दमड़ी ( पैसे )यह कहते हुए भिजवायीं कि इन्हें गंगा मैया को पुकार कर उनके हाथों में दे देना। गंगा घाट पर जाकर उन ब्राह्मणों ने गंगा स्नान किया, पूजा -अर्चना की और आते समय रविदास जी द्वारा दी गई दमड़ी को गंगा जी को अर्पित कर दी। कहा जाता है कि ब्राह्मणों द्वारा अर्पित की गई उस दमड़ी को गंगा मैया ने हाथ ऊपर कर ग्रहण की और उपहार स्वरूप अपना एक कंगन भी रविदास जी के लिए दे दिया। खूबसूरत सोने का कंगन देखकर ब्राह्मणों के मन में लालच समा गई। इनाम पाने की लालच में उन लोगों ने वह कंगन रविदास को ना देकर काशी के महाराज को दे दी। राजा से होते हुए वह कंगन जब रानी के हाथों में पहुंचा, तब रानी ने राजा से उस कंगन के जोड़े की मांग कर डाली। राजा के दरबार में एक बार फिर उन ब्राह्मणों की बुलाहट हुई। उन ब्राह्मणों ने डरते -डरते सारी सच्चाई राजा को बता दी और अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी।राजा को जब सारी सच्चाई पता चली, तब वे रविदास के पास पहुंचे; उनको सारी बातें बतायीं और उनसे कहा कि आपको गंगाघाट जाकर रानी के लिए इस कंगन का जोड़ा लेकर आना होगा। रविदास के लिए परीक्षा की घड़ी थी। उन्होंने कहा कि यदि मैं मन और कर्म से सच्चा हूं एवं मेरे मन में गंगा मैया के प्रति सच्ची श्रद्धा है, तो मुझे कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं है ।मेरे इस कठौती में भी गंगा मैया प्रकट हो सकती हैं। इसके बाद तो जैसे चमत्कार हो गया। रविदास जी ने चमड़ा भिगोने वाले अपनी कटौती के जल को सामने रखकर गंगा जी का आवाह्न किया ।गंगा मैया प्रकट हुई और उन्होंने कंगन के जोड़े के साथ अपना आशीर्वाद भी दिया। शायद तभी से यह कहावत चल निकली-
मन चंगा तो कठौती में गंगा गंगा।
संत रविदास ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान के बल पर लोगों को यह संदेश दिया कि कोई भी व्यक्ति जन्म से छोटा या बड़ा नहीं होता, बल्कि उस व्यक्ति के कर्म ही उसे छोटा या बड़ा बना देते हैं ।वे कहते हैं-
रविदास जन्म के कारनै, होत न कोई नीच।
नर कूं नीच कर डारि हैं, ओच्छे करम की कीच।।

रविदास का मानना था कि ईश्वर की सच्ची भक्ति वही कर सकता है जो मान -अभिमान त्याग कर परहित- भावना से प्रेरित होकर दूसरों के साथ सद्- व्यवहार का पालन करता हो।विनम्रता एवं शिष्टाता एक धार्मिक व्यक्ति के निश्चित गुण होने चाहिए ।अपने भजन मे उन्होंने कहा भी है कि-
रैदास तेरी भक्ति दूरी है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपलिक हवै चुनि खावै।
अर्थात् किसी को भी ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान -शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति ही अपने जीवन में सफल होता है ।जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि एक लघु शरीर की चिट्ठी इन कणों को सरलता पूर्वक चुन लेती है ।इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रता पूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का सच्चा भक्त हो सकता है।
रविदास का मानना था कि व्यक्ति के कर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं है। व्यक्ति को हमेशा ईमानदारी से अपने कर्म करते रहना चाहिए और साथ ही फल की आशा भी नहीं छोड़नी चाहिए, क्योंकि कर्म करना हमारा धर्म है, तो फल प्राप्त करना भी हमारा सौभाग्य होना चाहिए ।वे लिखते हैं-
कर्म बंधन में बंध रहियो, फल की न तजियो आस। कर्म मानुष का धर्म है,संत भाखै रैदास।।
वर्तमान परिदृश्य में देखा जाए तो उनके दोहे अति प्रासंगिक हैं। आज धर्म के नाम पर लोग आपस में लड़ रहे हैं; एक- दूसरे को नीचा दिखाने पर तुले हुए हैं; लेकिन रविदास जी के नजरों में कृष्ण,करीम, राघव, रहीम एक ही हैं, और वेद, पुराण, कुरान सभी में उस एक ईश्वर का ही गुणगान किया गया है ।इस संदर्भ में उनका एक दोहा याद आता है-
कृष्ण ,करीम, राम,हरी, राघव ,जब लग एक न पेखा।
वेद, कतेब, कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
संत रविदास जी जाति- पाति के घोर विरोधी थे। उनके विचार से यदि समाज में एकता एवं भाईचारा स्थापित करना है तो इस समाज से जाति- पाति के भेदभाव को मिटाना होगा। इस जाति ने समाज को कई खेमों में बांट रखा है। आज जाति के नाम पर मानव एक दूसरे से लड़ रहा है ।वे कहते हैं कि जब तक जाति का भेदभाव समाप्त नहीं होगा, तब तक मनुष्य का मनुष्य से जुड़ाव नहीं होगा।वे लिखते हैं-
जाति- जाति में जात है, जो केतन के पात। रैदास मनुष ना जुड़ सके, जब तक जाति ना जात।।
रविदास का मानना था कि कोई भी व्यक्ति किसी जाति या किसी धर्म में जन्म लेने मात्र से ही बड़ा या पूजनीय नहीं बन जाता है ।व्यक्ति अपने कर्मों से बड़ा बनता है। कोई भी व्यक्ति अगर अपने काम में प्रवीण है तो वह पूजने योग्य है ।चाहे वह किसी भी जाति या किसी भी धर्म का क्यों ना हो। वे कहते हैं-

रैदास ब्राह्मण मत पूजिए ,जो होवे गुणहीन।
पूजिए चरण चांडाल के, जो होवे गुण प्रवीन।।

संत शिरोमणि रविदास निर्गुण काव्य- धारा के कवि है ।वे रामानंद के 12 शिष्यों में से एक थे। वे कबीर दास एवं मीराबाई के समकालीन कवि माने जाते हैं। वे मूर्ति पूजा एवं तीर्थ यात्रा के घोर विरोधी रहे। वे जीवन पर्यंत समाज सुधार के लिए कार्य करते रहे ।उनकी सबसे बड़ी शक्ति उनका आध्यात्मिक ज्ञान ही था। उनका ज्ञान साधना एवं अनुभूति पर आधारित था। उनके राम संसार के कण-कण में व्याप्त हैं जो अनिर्वचनीय एवं व्याख्यातीत हैं।

भाषा की दृष्टि से देखा जाए तो रविदास जी की भाषा सरल, प्रवाहमयी और गेय है। उनके पदों में अरबी, फारसी, पंजाबी, ब्रज, गुजराती आदि के शब्द भाव के अनुसार मिल जाते हैं। उन्होंने सीधे -सादे शब्दों में अपने मन के भावों को प्रकट किया है।
रविदास जी के 40 पद सिखों के पवित्र ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में संकलित है ।यही कारण है कि प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा के दिन पंजाब- हरियाणा से रैदासियों का जत्था उनकी जयंती मनाने के लिए बनारस पहुंचता है।आज हम सभी को रविदास के बताए मार्ग पर चलने की आवश्यकता है

डॉ पुनम कुमारी, UHS Balbangra, Daraundha, Siwan

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