बचपन और उसकी यादें जब भी जेहन में आ जाती हैं तो होठों पर बरबस ही मुस्कान चली आती हैं।
बचपन के दिनों में गर्मी की छुट्टियों का वर्षभर बेसब्री से इंतजार रहता था।हालाँकि आज की तरह गर्मी की छुट्टियों में न कोई समर कैम्प लगता,न कोई हिल स्टेशन जाने का मौका मिलता मगर जो भी था वो दिन बड़े सुहाने थे जो जिंदगी के पन्नों पर खूबसूरती के साथ दर्ज हो गए हैं।
गर्मी की छुट्टियों में रूटीन से हटकर दादी के गाँव हम सब जाते थे जहाँ सारे छोटे बड़े कजिन इकट्ठे होते थे फिर शुरू होता था हमारा धमाल,सारा दिन खेल कूद मस्ती ,बगीचे में दिन गुजारना,कच्चे पक्के आम खाना।
आज भले घर में आम के ढेर हों मगर खाने में वो आनन्द कहाँ ,जो आनन्द सुबह सुबह बगीचे में पहुँचकर रात भर में पेड़ से गिरे पके आम को चुनकर खाने में आता था।
एक अनार सौ बीमार वाली कहावत भी वहाँ चरितार्थ होती थी जब एक गिरे हुए आम को लपक कर उठाने के लिए सब मिलकर दौड़ लगाते और जिसे मिल जाता वह जो जीता वही सिकन्दर की तरह व्यवहार करता।
मुझे आज भी याद है हमारे बगीचे के बगल में एक पड़ोसी के दो पेड़ थे ,खूब विशालकाय वह पेड़ ,आम से लदी हुई उनकी डालियाँ झुकी रहती थी।
उसकी रखवाली करने वाले एक बुजुर्ग वही पर सारा दिन लेटे रहते।
मजाल जो कोई उनके पेड़ का एक भी आम उठा ले।
लेकिन हाँ, जब कभी हम बच्चे वहाँ जाते तो पानी से भरी हुई बाल्टी में 40-50 आम डालकर वह बाल्टी हमारे सामने कर देते और बोलते सारे आम खत्म कर दो।
अहा,क्या वो भी दिन थे,आम का वह स्वाद आज भी जिह्वा पर बरक़रार है।अब ना वह पेड़ है,ना ही वैसे बुजुर्ग और ना ही बच्चे जो गर्मी की छुट्टियों में गाँव की सैर को जाते हैं।
आम की बात जब चल पड़ी है तो एक घटना याद आती है जो अविस्मरणीय है।
जून का महीना और गर्मी चरम पर थी।कड़क धूप और लू से सबकी हालत खराब थी।मगर हम बच्चों को धूप और गर्मी रोक सके।ऐसा कभी हो सकता था भला।
हम तकरीबन 10-15 बच्चों की टोली पहुँच गयें बगीचे में।
बगीचे में पूरा सन्नाटा था,बस पछुआ हवा का शोर सुनाई दे रहा था।
हम बच्चे आम के पेड़ पर चढ़कर आम तोड़ने लगे ,हम सब ऐसे आम तोड़ रहे थे जैसे बंदरों का झुंड बगीचे में घुस गया हो।
जिसके हाथ में जो भी आम आता वह उसे तोड़ लेता।चाहे वह कच्चा हो,पका हो,छोटा हो या बड़ा।
इस तरह लगभग एक बोरी आम हमलोगों ने मिलकर तोड़ लिया।अब समस्या यह थी कि इस आम को रखा कहाँ जाएगा।घरवालों को पता चलता तो बहुत मार पड़ती।
फिर हमलोगों ने बगीचे में ही झोपडी के पीछे पत्तों में छुपाकर आम रख दिया और तय हुआ कि यह बिल्कुल गुप्त रखेंगे।सब जब एक साथ बगीचे में आएंगे तभी कोई आम को हाथ लगाएगा।
ऐसा कहकर दो दो चार चार आम खाकर हम सभी घर आ गए।
फिर किसी कारणवश हम दो दिन तक बगीचे नही जा पाएं तीसरे दिन जब बगीचा पहुँचे तो दौड़कर अपने आम के बोरे को देखने गए।
पर यह क्या,आम नदारद।सब एक दूसरे का मुँह देखने लगें।
आम गुम हो गया या किसी ने ले लिया ये किसी से कह भी नही सकते थे।
लेकिन हाँ, यह सबक जरूर मिल गया कि कभी चोरी नही करना चाहिए।
रूचिका
राजकीय उत्क्रमित मध्य विद्यालय तेनुआ,गुठनी सिवान बिहार