भोलवा का कुर्ता-चाँदनी समर

Chandni

Chandni

भोलवा का कुर्ता

          उसने आंख खोलकर एक बार देखा और फिर अपनी फटी कम्बल खींच ली। सर्दी आज भी बहुत अधिक थी। मगर तभी उसकी पत्नी गंगा की आवाज़ ने उसे सीधा उठा कर बैठा दिया। नित्यक्रिया से मुक्त होकर जब वो आँगन में आया तो गंगा फिर शुरू हो गई।

जाओ आज तो जमींदार के यहाँ से अपनी मज़दूरी ले आओ। कम से कम भोलवा को एक ऊनी कुर्ता तो सिलवा दो। एक ही कुर्ता था वो भी फट गया। सर्दी में ठिठुरता रहता है। हम तो कैसे भी गुज़ारा कर लें पर उस पर तो दया करो। क्या पूरा पत्थर का ह्रदय हो गया है तुमरा? अपनी संन्तान पर भी दया माया नही।

अरे चुपकर चुपकर। काहे सुबह-सुबह चालू हो जाती है। इसमें हमरा का दोष है! जब जाते हैं तो जमींदार कहता है दो दिन बाद आओ। तो हम का करें? ललुआ ने झुंझला कर कहा।

ई जमींदार लोग भी लोभी हो गए हैं। पापी! इतना धन समेटे बैठे हैं तब भी ग़रीब का पैसा देने में इतनी ममता लगती है। जितना में हमरा महीना दिन का राशन हो जाय उतनी तो एक दिन में चाय सुड़क जाते हैं। फिर भी.. पापी। नरक में भी जगह न मिले। गंगा ने चूल्हे में फूंक मारते हुए कहा तो लालू ने उसे टोक दिया- अरे चुपकर। क्या बकती है। उन्हीं से तो हमारा दाना-पानी चलता है। ऐसे उनको श्रापोगी तो तुमको क्या स्वर्ग मिलेगा।

हाँ- हाँ तुम हमी को बोलो। उनके सामने तो बोल फूटती नही। अंग्रेज़ों का राज़ है आज भी। झूट कहते हैं कि देश आजाद हो गया है। हमारे लिए तो आज भी वही भुखमरी वही ग़रीबी। गंगा बड़बड़ाती रही जब लालू बाहर निकल गया। गंगा को तो डांटा मगर उसका प्रत्यक्ष उदाहरण बरामदे में बैठा था। भोलवा अपनी फटी कमीज़ में हाथ पैर सिकोड़े था। एक क्षण को वह उसे देखता रहा फिर आगे बढ़ गया कि तभी पीछे से भोलवा ने उसकी कमीज खींची।

बाबा आज हमारा कुर्ता ले आना।
उसने पलट कर देखा। मन अचानक से जाने कैसा हो गया। वो बिना कुछ बोले तेज़ी से वहाँ से निकल गया।
ज़मींदार के घर पहुँचा तो वहाँ सुबह की टी पार्टी चल रही थी। एक बड़े से अलाव के पास जमींदार चंद्रभूषण ठाकुर अपनी पत्नी व दो भाइयों के साथ बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे। एक ओर छोटी सी मेज़ पर दो तश्तरियों में बिस्कुट भी रखा था। लालू चुपचाप जा कर खड़ा हो गया। कुछ कहने की हिम्मत न पड़ रही थी।

तू फिर आ गया रे ललुआ। इतने से पैसे के लिए इतना तगादा! ज़मींदार ने उसे देखकर कहा।

साहब भोलवा का कुर्ता खरीदना है। सर्दी बड़ी पड़ रही है ना। लालू ने दीनता भाव से कहा तो ज़मींदार हँस पड़े।

अरे कहाँ है सर्दी? हमें तो नहीं लगती।
उनकी बात पर वह कुछ नही बोला केवल जलती हुई अलाव और चाय की प्याली की ओर देखकर सर झुका लिया।

ज़मींदार की पत्नी ने धीमे स्वर में कुछ कह तो उसने सर हिलाया।

कितने पैसे हैं तेरे? ज़मींदार ने लालू से पूछा।

जी सरकार 300।  लालू ने आशा भारी दृष्टि से देखते हुए कहा ।

यह ले, कहते हुए जमींदार ने कुछ नोट निकाल उसकी ओर बढ़ाया।

परंतु यह तो 200 रु ही हैं। लालू थोड़ा चकित होते हुए बोला।

हाँ हाँ अभी इतना ले ले बाकी फिर ले जाना। काम तो करते ही रहना है ना। जमींदार ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।

लालू ने चुपचाप रुपये ले लिये। आती हुई लक्ष्मी को छोड़ना बुद्धिमानी न थी। जो मिल रहा है वही गनीमत।

पैसे लेकर जब वो वापस मुड़ा तो शरीर मे ऊष्मा जाग उठी जैसे जमींदार का अलाव वो अपने साथ लिए जा रहा हो। वह तेज़ कदमों से खेत की पगडंडी पर भागा जा रहा था कि अचानक उसके पैर रुक गए। अरे यह सामने कौन आ रहा है? उसने कुछ दूरी पर हिलती-डुलती आकृति को देख कर सोचा। कुछ कदम चल पीपल के वृक्ष के पास पहुँचा तो वो आकृति स्पष्ट दिखने लगी।

अरे यह बुढ़िया! हे भगवान!
अचानक उसके शरीर की सारी ऊष्मा लुप्त हो गई। पूरा शरीर अचानक कांप उठा। ऐसा लगा कान तले आकर बुढ़िया चिल्ला रही हो- क्यों रे ललुआ, हमारा पैसा नहीं देगा? तीन महीने हो गए। शरीर में एक झुरझुरी सी हो उठी और वो शीघ्रता से वृक्ष के पीछे छिप गया। कहीं बुढ़िया की दृष्टि न पड़ जाये। वह चुपचाप खड़ा था परंतु उसका मन शोर मचाने लगा।

इन पैसों पर पहला अधिकार तो उसी का बनता है। भोलवा बीमारी की उस दुर्गम स्तिथि में इसी ने मदद की थी। तीन महीने हो गए उसने अब तक उसके पैसे नहीं लौटाए। लौटाए भी कैसे? यहाँ तो सदा क़िल्लत ही बनी रहती है। परंतु…उसकी दृष्टि बुढ़िया की पेवन्द से भरी चादर पर पड़ी जिसमे अब भी कई खिड़कियां मौजूद थीं।

आह! इसे भी तो सर्दी लगती होगी। चद्दर है कि मच्छरदानी। ठंड से कांप रही है। बुढ़िया को देखकर उसका मन द्रवित हो उठा। मां बाप के संस्कार कुरेदने लगे। इतने में इसकी चद्दर तो हो ही जायगी।
वह सोचते हुए बुढ़िया की ओर बढ़ने को हुआ कि उसके कदम फिर रुक गए। लगा भोलवा पीछे से कुर्ता खींच रहा है- बाबा मेरा कुर्ता। उसका मासूम चेहरा नज़र के सामने घूम गया। उसने धोती में बंधे पैसों को दोनों हाथों से ज़ोर से दबाया और पुनः पेड़ से चिपक गया। कांपती हुई बुढ़िया समीप से निकल आगे बढ़ गई। उसने कातर नेत्रों से जाती हुई बुढ़िया को देखा और घर की ओर जाती हुई पगडण्डी पर चिल्लाता हुआ भागा- भोलवा का कुर्ता, भोलवा का कुर्ता

लेखिका
चाँदनी समर

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One thought on “भोलवा का कुर्ता-चाँदनी समर

  1. महान साहित्यकार प्रेमचंद की जयंती पर उन्हें समर्पित मेरी एक लघुकथा।

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