चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
पण्डित चन्द्रधर शर्मा “गुलेरी” का जन्म राजस्थान के जयपुर के पुरानी बस्ती में 7 जुलाई 1883 को हुआ था। उनके पिता का नाम पण्डित शिवराम शास्त्री तथा माता का नाम लक्ष्मी देवी था।
चन्द्रधर शर्मा जी सभी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। बी० ए० की परीक्षा में सर्वप्रथम रहे। 1904 ईस्वी में गुलेरी जी मेयो कॉलेज अजमेर में अध्यापक के रूप में कार्य करने लगे। उनका विवाह लगभग 20 वर्ष की अवस्था में कवि रैना की पुत्री पद्मावती से हुआ था। चन्द्रधर जी के दो भाई थे- सोमदेव और जगद्धार।
गुलेरीजी अधिकतर सफेद वस्त्र पहना करते थे जिसपर काला अंगरखा उनके भरे हुए गोल चेहरे की आभा द्विगुणित कर देता था। अंगरखा में में जेब घड़ी रखा करते थे। उनकी मुद्रा प्रभावशाली और गम्भीर थी। उनका हकला कर बोलना बहुत प्यारा था। गुलेरी जी को ब्रह्ममुहूर्त में जगने का अभ्यास था। स्वाध्याय आदि करके स्नान करते और फिर वैदिक रीति से तीन चार घण्टे संध्या किया करते थे। गुलेरीजी का व्यक्तित्व जितना रौबदार दिखता था प्रकृति से वे उतने ही विनम्र और दयालु थे। वे निष्कपट और आडम्बरहीन प्रकृति के पुरुष थे।
गुलेरीजी ने जब लिखना शुरू किया तो अपने गाँव का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध दिखाकर गुलेर से गुलेरी उपाधि धारण कर ली। इस प्रकार गुलेरी जी ने अपने नाम के साथ-साथ अपने गाँव गुलेर का नाम भी सदैव के लिए साहित्य-संसार में अमर कर दिया।
गुलेरीजी अपने रचना कार्य के प्रति जितने गम्भीर थे उतने सजग सावधान भी। वे अपने साहित्य के मौलिक स्वरूप को बखूबी पहचानते थे तथा उसके प्रति उनमें अगाध विश्वास था।
गुलेरीजी का व्यक्तित्व, स्वभाव, रहन-सहन ये सभी उनकी लेखन चर्या से सहज रूप से पहचाने जा सकते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि उनका सबकुछ सहज था, साधारण और सपाट नहीं। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। उनके अध्ययन, चिन्तन और मनन का फलक अत्यन्त व्यापक रहा है।संस्कृत साहित्य के प्रकाण्ड अध्येता तो थे ही साथ ही वे समूचे भारतीय वाङ्गमय में अच्छी पैठ रखते थे।गुलेरी जी बड़े ही निर्भीक, दूरदर्शी और स्पष्टवादी साहित्यकार थे।
ऐसे भविष्यद्रष्टा, बहुपक्षीय कार्यक्षमता के धनी लेखक ने जहाँ एक ओर हिन्दी साहित्य के विकास के लिए विविध क्षेत्रों में लेखनी चलाई वहीं दूसरी ओर समालोचक नामक साहित्यिक पत्र के माध्यम से लेखकों को हिन्दी में उत्तम विषयों पर भी लिखने के लिए अनेक प्रकार से प्रोत्साहित भी किया। उनका लक्ष्य एक स्वस्थ और प्रयोजन पूर्ण साहित्य का सृजन था। रचनाकार गुलेरी ने अपने वैदुष्य को अनुभूति में ढालकर भावना से सजाकर अभिव्यक्त किया है। साहित्य के क्षेत्र में वे कहानीकार, कवि, निबन्धकार, पत्रकार तथा समालोचक थे और समाज के लिए पथ-प्रदर्शक भी।
बीस वर्ष की उम्र में ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे संबंधित शोधकार्य के लिए गठित मंडल के लिए चुन लिया गया। 1900 ईस्वी में जयपुर में नागरी मंच की स्थापना में योगदान दिया और सन 1902 से मासिक पत्र समालोचक के संपादन का भार भी संभाला। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्यकुमारी पुस्तक का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे।
जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेने वाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ संबंध रहा।
“बुद्धू का काँटा” और “सुखमय जीवन” में गुलेरी जी के कहानीकार व्यक्तित्व का विकास अवश्य हुआ किन्तु उसने कहा था ”कहानी में उनकी अद्भुत कल्पना शक्ति का परिचय मिलता है, जिसमें यथार्थवादी संभावनाएं बनती नजर आती है। मात्र इसी कहानी के आधार पर गुलेरी जी हिन्दी साहित्य में अमर हो गए। यहाँ तक कि यह कहानी गुलेरी जी का पर्याय ही बन गई।
कहानी का कथानक ही ऐसा है कि पाठक जिज्ञासु बनकर घटनाओं के प्रति उत्सुक बना रहता है। किसने कहा था, क्या कहा था और क्यों कहा था, यही कहानी की मूल संवेदना से जुड़ा तथ्य है जो घटना चक्र के साथ पाठक को जोड़े रहता है और उसकी जिज्ञासु प्रवृति को विकसित करता है। हिन्दी साहित्य के प्रख्यात साहित्यकार कैप्टेन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने “द जयपुर ऑब्जरवेटरी एंड इट्स बिल्डर्स” शीर्षक से अँग्रेजी ग्रंथ की रचना की।
छुआछूत को वे सनातन धर्म के विरुद्ध मानते थे।
गुलेरी जी हिन्दी के ऐसे शिखर थे जिनकी ऊँचाई अपने देशकाल में ही नहीं बल्कि आगामी युग में भी स्पृहा की वस्तु रहेगी। वे केवल लेखन और अध्ययन द्वारा सरस्वती की उपासना ही नहीं करते रहे अपितु एक युगद्रष्टा भी बने। उन्होंने साहित्य भाषा और संस्कृति के क्षेत्रों में जो कार्य किया उससे उनकी कीर्ति पताका सदा फहराती रहेगी। वे अत्यन्त प्रज्ञावान प्रबुद्ध साहित्यकार थे। उन्हें हिन्दी संस्कृत उर्दू फ़ारसी, बांग्ला, ग्रीक, अँग्रेजी आदि भाषाओं का ज्ञान था। उन्होंने एक श्रेष्ठ लेखक, साहित्यकार, समाजसेवी, पत्रकार, वक्ताऔर अनुवादक की भूमिका निभाई।
हिन्दी भाषा में गुलेरी जी का स्थान बहुत ऊँचा है। वे हिन्दी भाषा के सच्चे हितैषी थे। “खेलोगे कूदोगे होगे खराब” की मान्यता वाले युग में गुलेरी जी खेल को शिक्षा का सशक्त माध्यम मानते थे। बाल विवाह के विरोध और स्त्री शिक्षा के समर्थन के साथ ही आज से सौ साल पहले उन्होंने बालक-बालिकाओं के स्वस्थ चारित्रिक विकास के लिए सह शिक्षा को आवश्यक माना था।
12 सितम्बर 1922 को पीलिया के बाद तेज ज्वर से मात्र 39 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया। उस समय वे उनतालीस वर्ष दो महीने और पाँच दिन के थे। हिन्दी साहित्य के इस महान भाष्कर को हर्ष का कोटिशः नमन।
हर्ष नारायण दास
फॉरबिसगंज (अररिया)