चुप्पी संस्कृति को खत्म करने का संकल्प लें इस बिहार दिवस
पिछले दो दशकों के पश्चात पुरातन शिक्षा प्रणाली में काफी कुछ बदलाव हुए हैं। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों और शिक्षा शास्त्रियों ने स्पेयर द रौड एंड स्पॉइल द चाइल्ड की पुरातन शिक्षा व्यवस्था में अमोल श्रमिक परिवर्तन किए हैं । अब हम बच्चे को प्यार से पढ़ाते हैं या यूं कहें उनके शिक्षक बनकर नहीं बल्कि सुगमकर्ता बनकर पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया में मात्र दिशा देने का काम करते हैं। इधर कोरोना महामारी के बीच हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था में आईसीटी को अपनाया है, अंगीकार किया है। जो आगे भी शिक्षा व्यवस्था में काफी कुछ बदलाव लाएगा जिस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है परंतु यह भी सत्य है कि बच्चे मात्र विद्यालय में शिक्षक से ही नहीं सीखते हैं बल्कि वह अपने सहपाठियों से सीखते हैं, अपने विद्यालय से घर आनेे-जाने के रास्ते में भी सीखते हैं। एक-दूसरे की संस्कृति को भी अपनाते हैं और यहां भी उन्हें दैनिक जीवन के साथ ही उनके पाठ्यक्रम के कई बातें प्राप्त होती हैं।
हम जानते हैं कि जब बच्चे विद्यालय आते हैं तो वह सिर्फ झोले लेकर ही नहीं आते बल्कि अपना अनुभव और ज्ञान तथा अपनी भाषा को भी लेकर आते हैं। हम पूरी तरह से बिना किसी किंतु परंतु के सहमत हो सकते हैं कि बच्चे के घर की भाषा और विद्यालय में पढ़ाई जाने वाली भाषा में भिन्नता होती है जो उनके सहज तरीके से अभिव्यक्ति को बाधित करती है। इस प्रकार बच्चे का भाषाई विकास बाधित होता है और उनके पढ़ने-लिखने के साथ-साथ जानकारी प्राप्त करने की कुशलताएँ बाधित हो जाती है। फिर बच्चों में चुप्पी की संस्कृति का विकास होता है। शिक्षा व्यवस्था में इतने सारे परिवर्तन के पश्चात भी चुप्पी संस्कृति से बच्चों को निजात नहीं दिलाया जा सका है जो उनके व्यक्तित्व के विकास में बाधक होता है।आज के शिक्षा व्यवस्था में, खासकर प्रारंभिक शिक्षा में आंचलिक शब्दावली, बातचीत, कहानी, कविता की नितांत आवश्यकता है जो उन्हें आनंद की अनुभूति एवं आत्मविश्वास की ताकत को बढाने के साथ उनके विद्यालय में ठहराव तथा नियमितता को बढ़ाकर सीखना आनंददाई और आसान बना देता है। तो आइए इस बिहार दिवस यह संकल्प लें कि बच्चों की चुप्पी संस्कृति को तोड़कर उनके सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को आनंददाई बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करें।
अरविंद कुमार
गौतम मध्य विद्यालय न्यू डिलियाँ देहरी रोहतास
बच्चों में डर और झिझक का कुन्ठीत
समावेश होता है। हम सभी शिक्षकों को भी मालूम है कि बचपन में किसी शिक्षक से कुछ पुछने के लिए कितनी हिम्मत जुटानी पड़ती थी,और नहीं तो फिर चुप ही रहते थे।
यही चुप्पी ज्ञान को अंदर मन मस्तिष्क में नहीं जाने देती है और गुरु शिष्य के बीच दिवाल बनकर खड़ी हो जाती है।
बच्चों के इस रुग्ण स्वभाव को हम शिक्षक ही बदल सकते हैं। हम बच्चों को अपना समझें और अपने बच्चे की तरह प्यार से बाबू, बुला कह कर
उससे पुंछे कि क्या समझ में आ रहा है या नहीं। बच्चों को ऐसा लगे कि सामने वाला व्यक्ति मेरा अपना सगा है,और तब वह चुप्पी टुट जाएगी, और ऐसा होगा आपके द्वारा बताया गया हर शब्द बच्चा आत्मसात करता जाएगा। वह चुप्पी टुट जाएगी जो बच्चे के मस्तिष्क का ढक्कन बना हुआ था।
यही है चुप्पी संस्कृति और उसे तोड़ने का उपाय। अगर बच्चों को हम प्यार से धीरे धीरे गुरुमुख करने का प्रयास करेंगे तो एक दिन वह बच्चा भी आपको अपना समझ कर हर बात साझा करेगा जो उसे चाहिए।
वह बच्चा खुलकर अपनी पापा की तरह बातें करेगा। इस स्थिति में गुरु और शिष्य दोनों एकाकार हो जाते हैं।
धन्य हैं ऐसे गुरु और शिष्य । ऐसी स्थिति में ही वह शिष्य पात्रता को प्राप्त करता है और उसमें ज्ञान को अंदर ग्रहण शक्ति उत्पन्न हो जाती है हमें भी असीम आनन्द और संतुष्टि की अनुभूति होती है।
तो जरुरत है इस चुप्पी को तोड़ने की। हालांकि यह कोई नई परम्परा नहीं है, पुरातन काल में जब ऋषि परंपरा था और गुरुकुल में अध्ययन करने छात्र जाते थे तो वहां रह कर सेवा करने का भी विधान था और वह इस लिए कि गुरु को अपना समझने का समय मिले और शिष्य को गुरु अपना समझें।
अतः बहुत ही अच्छा पहल है। हम सभी इस चुप्पी संस्कृति को तोड़ने का संकल्प लेते हैं।