जंतुओं के बीच कला शिक्षा-सुधांशु कुमार चक्रवर्ती

जंतुओं के बीच कला शिक्षा

          कला का विकास मनुष्य में ही नहीं होता बल्कि जीवजंतुओं में भी कला का विकास होता है। एक कोशकीय अमीबा के अंदर यह कला होती है कि प्रचलन के लिए हमेशा नया-नया कूट पाद बनाता रहता है। जब किसी जानवर को भूख या डर लगता है तो वह भोजन और सुरक्षा के लिए अपनी आवाज़ में चिल्लाने का अभिनय करता है। जानवर अपने बच्चों को कला के माध्यम से सुरक्षा प्रदान करता है। बीन बजाने वाला सपेरा साँप को इतना कला प्रशिक्षण जरूर दे देता है कि जब वह बीन बजाता है, उस वक़्त साँप डिब्बा से बाहर निकल सिर हिलाने लगता है। एक भविष्य पत्र बाँटने वाला पंडित जी तोते को इतना कलात्मक ढंग से प्रशिक्षण दे देता है कि वह पंडित जी की आवाज़ लगाते ही पिंजरा से निकल ग्राहक के हाथ में भविष्य पत्र दे देता है। वैसे भी घरों में कैद पिंजरे के अंदर से तोता मनुष्य की आवाज़ का नकल करता है। पुराने जमाने में कबूतर को कला प्रशिक्षण दी जाती थी जिससे वह पत्र वाहक का काम करता था। सर्कस में हमेशा हाथी, बाघ, शेर, चीता, बंदर भालू को कला प्रशिक्षण दी जाती है कि कैसे सर्कस में बैठे दर्शकों को कला के माध्यम से मनोरंजन करना है। फिल्मों में भी दर्शकों को मनोरंजन या अभिनय संवाद के लिए जानवरों को प्रशिक्षण दिया जाता है जिससे दर्शक खूब मनोरंजन करते है। लोक नाटक, लोक नृत्य में भी बंदर-बन्दरनी को कला शिक्षा दी जाती है जिससे ग्रामीण क्षेत्र में लोक नृत्य एवम लोक नाटक में बंदर-बंदरनी खूब दर्शकों को मनोरंजन करता है। अब तो मनुष्य के समांतर जीवन यापन के लिए जानवरों को मनोवैज्ञानिक ढंग से कलात्मक प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

सुधांशु कुमार चक्रवर्ती
हाजीपुर, वैशाली

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