गाँव के अंतिम छोर पर एक टूटी-फूटी झोपड़ी में बुजुर्ग हरिश्चंद्र रहते थे। उम्र के अंतिम पड़ाव पर उनका न कोई संगी था, न कोई संतान। समय काल ने उनसे धीरे-धीरे सब कुछ छीन लिया था — खेत, परिवार, स्वास्थ्य… यहाँ तक कि सुनने और देखने की क्षमता भी कमजोर हो गई थी।
गाँव के लोग अकसर उन्हें देखकर कहते, “अब तो इनके जीवन में क्या शेष रहा है? क्यों जी रहे हैं ये यूँ अकेले?”
पर हरिश्चंद्र हर सुबह सूरज निकलने से पहले उठते, अपनी लकड़ी की टूटी कुर्सी पर बैठकर धीरे-धीरे ईश्वर का स्मरण करते और झोपड़ी के आगे बने छोटे से बग़ीचे में पानी डालते।
उनकी आँखों में कोई शिकायत नहीं थी, बल्कि एक गहरी शांति थी।
एक दिन गाँव के एक युवा ने साहस करके पूछ लिया,”बाबा! इतनी कठिनाइयों के बाद भी आप जी रहे हैं… आखिर क्यों?”
हरिश्चंद्र मुस्कुराए, और धीरे से बोले, “बेटा, जब तक जीवन की एक भी स्वाँस शेष है, उसे ईश्वर का उपहार मानकर जिया जाता है। दुखों से डरकर जीवन का दीपक बुझा देना कायरता है। असली वीर वही है जो आँधियों में भी अपना दीपक जलाए रखे।”
युवक की आँखें नम हो गईं। उसे समझ में आ गया — कभी-कभी स्वाँसों को निभाना ही सबसे बड़ा साहस होता है।
जीवन चाहे जितना कठिन क्यों न हो, उसे थामे रहना ही एक सुंदर संघर्ष है।
सुरेश कुमार गौरव, प्रधानाध्यापक
उ.म.वि.रसलपुर, फतुहा, पटना, बिहार