जल अमूल्य है
बाहर खटर पटर की आवाज सुनते ही सुधा के बेजान शरीर में हरकत हुई। किसी तरह खुद को उठाते हुए वह बाहर के आवाज का जायजा लेने की कोशिश करने लगी। रात से ही पानी खत्म हो गया था, बुखार से शरीर तप रहा था, प्यास के मारे दम निकल रहा था और घर में वह अकेली थी।
बड़े शहरों की विडंबना यही होती है कि आस-पास सटे हुए घरों के बावजूद किसी को एक-दूसरे से कोई मतलब नही रहताा न ही कोई एक-दूसरे का हाल पूछना जरूरी समझते। उसे इंतजार था पानी के टैंकर का जो रोज सुबह सरकार द्वारा भेजा जाता ताकि वह अपनी प्यास बुझा सके।
शोर का अनुमान लगाते ही उसे पता चल गया कि टैंकर आ चुका है। किसी तरह अपने तपते वजूद को खड़ा कर एक बाल्टी लेकर वह निकल पड़ी, पानी के कतार में खड़े होने के लिए। उसके पहुँचने से पहले लंबी लाइन लग चुकी थी। एक बार तो सुधा की हिम्मत जबाब दे गई। उसे लगा कि वह नहीं ले पाएगी पानी इस भीड़ में। परंतु प्यास भी जोरों की लगी थी। तकरीबन दो घंटे की प्रतीक्षा के बाद उसकी बारी आई। वह बाल्टी में पानी भरकर भीड़ से बाहर आई और एक कोने में बैठकर अपनी प्यास बुझाई।
तब उसके बेजान शरीर में थोड़ी जान आई पर इतनी भी नहीं की वह भरी बाल्टी लेकर अपने घर तक जा सके परन्तु पानी तो जरूरी था अतः वह धीरे धीरे बाल्टी को लेकर चलने लगी। कुछ देर चलने के बाद ही उसे बड़ी तेज चक्कर आई और वह बाल्टी समेत गिर पड़ी। सारा पानी सड़क पर बिखर चुका था और वह रो रही थी, इसलिए नहीं कि उसे चोट लगी थी बल्कि इसलिए कि अब कल तक बिना पानी के कैसे रहेगी।
मात्र एक दिन का सोचकर उसकी हालत खराब थी और अगर ऐसा हरदम के लिए हो जाए तो।
रूचिका राय
सुन्दर लेख
जी शुक्रिया