कार्तिक भगवान को लाई का भोग-सुमोना रिंकू घोष

कार्तिक भगवान को लाई का भोग 

          सनातन धर्म के अनुसार कार्तिक मास में गंगा स्नान करना एवं गंगा तीर्थ करने का अपना महत्व है। प्राचीन समय की बात है कि किसी गाँव में रामधनी उसकी पत्नी एवं उसकी वृद्ध माता रहती थी। माता ने अपने पुत्र से आश्विन मास के समाप्ति पर कार्तिक मास में गंगा दर्शन, गंगा स्नान एवं गंगा तीर्थ की इच्छा प्रकट की। रामधनी ने अपनी पत्नी से अपनी माता की यात्रा हेतु सभी तैयारी करने को कहा।बहू ने खुशी-खुशी अपनी सासू माँ की तीर्थ यात्रा हेतु उनके वस्त्र आदि तैयार कर दिए एवं साथ में भोजन करने हेतु 30 लाई दे दी।कार्तिक मास के प्रारंभ होते ही उनका पुत्र उन्हें गंगा के तट पर ले गए वहाँ घास फूस की कुटी बना दी एवं माँ के तीर्थ हेतु सभी व्यवस्था कर दिया साथ ही कार्तिक मास की समाप्ति पर उन्हें वापस घर ले जाने का आश्वासन देकर वे चले घर आ गए।

वृद्ध स्त्री प्रातः काल गंगा स्नान करती, तुलसी पूजन करती एवं दान-पुण्य यथासंभव कर भजन पूजन में लग जाती।आश्विन मास की समाप्ति होने पर एक बार भगवान कार्तिक एवं गणेश जी भू लोक की यात्रा पर निकलते हैं। दोनों भाई आपस में बातचीत करते हैं कि चलते हैं हम लोग देखते हैं गंगा किनारे लोग भजन पूजा कर रहे होंगे उन्हें देखने चलते हैं। गणेश कार्तिक दोनों भाई दो बालकों का वेश धारण कर गंगा किनारे आते हैं। वहाँ वे देखते हैं एक वृद्ध स्त्री भजन पूजन में मग्न है। वे दोनों उसके पास जाते हैं और कहते हैं माई-माई हमें बहुत जोर से भूख लगी है कुछ खाने को दो ना। वृद्ध स्त्री खुशी-खुशी कहती है- हाँ बेटा बैठो ना। वह तुरंत अपनी पोटली से एक लाई निकालती है उसे आधा-आधा करती है एवं दोनों को एक-एक टुकड़ा दे देती है एवं जो बचता है उसे ही ग्रहण कर पाँच अंजलि गंगाजल का सेवन कर भजन पूजन में लग जाती है। दोनों बालक लाई खाकर खुशी-खुशी वहाँ से चले जाते हैं।

अगले दिन दोनों बालक पुनः उसी प्रकार आते हैं एवं लाई खाने की इच्छा प्रकट करते हैं। वृद्ध स्त्री उन्हें एक लाइ निकालकर आधा-आधा बांट देती है एवं जो टुकड़ा बचता है उसे ही ग्रहण कर पुनः भजन पूजन करने लगती है। इसी प्रकार पूरा कार्तिक मास लगभग बीतने को होता है। एक दिन गणेश कार्तिक आपस में बातें करते हैं कि भाई हम लोगों ने इस बूढ़ी स्त्री का स्वादिष्ट लाई खूब खाया। क्यों न इसका फल इसे दिया जाए। वे दोनों इस बार एक स्वर्ण बेल लेकर उस स्त्री के पास आते हैं और उसे देते हुए कहते हैं कि माई, हमने आपका स्वादिष्ट लाई खूब खाया आज आप हमारी ओर से यह भेंट स्वीकार करें। वृद्धि स्त्री स्वर्ण बेल देखते हीं डरकर बोली- नहीं बेटा यह बेल हम नहीं ले सकते। मेरा पुत्र देखेगा तो कहेगा कि माँ मैंने तो तुम्हें यहाँ पुण्य कार्य करने हेतु पहुँचाया था। तुम यह स्वर्ण बेल कहाँ से लाई। अवश्य ही तुमने किसी की चोरी की है। बेटा मैं यह नहीं ले सकती। यह सुनकर कार्तिक भगवान ने कहा- नहीं माई यह आपके पाप का नहीं बल्कि पुण्य का फल है और इसे भेंट स्वरूप स्वीकार करें। बूढ़ी माई ने कार्तिक भगवान से वह स्वर्ण बेल ले लिया। जब उसका पुत्र उसे लेने आया तो उसने सारी कथा अपने पुत्र को सुनाई। पुत्र खुशी-खुशी अपने माँ को लेकर अपने घर गया। वहाँ उसने स्वर्ण बेल से प्राप्त धन से कई तालाब खुदवाए, मंदिर बनवाए एवं दान पुण्य का कार्य किया।

एक दिन रामधनी ने देखा कि उसकी पत्नी अत्यंत दुखी थी। उसने अपनी पत्नी से पूछा- भार्या आप इतनी दुखी क्यों हो? उसकी पत्नी ने कहा- स्वामी हम लोगों ने माँ जी को तो गंगा तीर्थ करा दिया परंतु मैं सोचती हूँ कि मेरा तो कोई भाई नहीं है तो मेरी माँ को तीर्थ कौन कराएगा? सुनते ही पति ने कहा- कोई बात नहीं। अगले वर्ष कार्तिक मास में हम लोग आपकी माँ को भी तीर्थ करा देंगे। अगले वर्ष रामधनी अपनी सासू माँ को लेकर तीर्थ हेतु जाने लगा। उसकी पत्नी ने अपनी माँँ को साठ लाई साथ में देते हुए कहा- माँ कुछ तुम खाना कुछ दान पुण्य करना। रामधनी अपनी सासू माँ को लेकर उसी गंगा घाट पर गया एवं उनकी झोपड़ी बनाकर उन्हें वहां रहकर भजन-पूजन करने हेतु सभी व्यवस्था करने के उपरांत कार्तिक मास की समाप्ति पर वापस घर ले जाने का आश्वासन देते हुए घर लौट आया।

आश्विन मास की समाप्ति एवं कार्तिक मास के प्रारंभ होने पर गणेश कार्तिक दोनों भाई आपस में बातें करते हैं कि चलो न हम लोग धरती पर चलते हैं। देखते हैं गंगा घाट पर फिर कुछ लोग अवश्य आए होंगे। तीर्थ हेतु अवश्य हमें फिर से स्वादिष्ट लाई खाने को मिलेगा। वे दोनों भाई फिर से बालक का वेश धारण कर धरती पर आते हैं और देखते हैं कि एक वृद्ध स्त्री उसी प्रकार फूस की झोपड़ी में है। वे दोनों उसके पास जाकर कहते हैं माई-माई बहुत जोर से भूख लगी है कुछ खाने को दो ना। इसपर रामधनी की सास कहती है- अरे बच्चे हमारे पास कहाँ कुछ खाने को है। हमारी बेटी और दामाद ने मुुझे 60 लाई दिया है जो हम सुबह शाम करके 30 दिन तक खाएँगे। तुम्हें देने के लिए हमारे पास कुछ नहीं है। तुम लोग जाओ यहाँ से। सुनकर गणेश कार्तिक वहाँ से चले जाते हैं।

इसी प्रकार पूरा कार्तिक मास बीत जाता है। अंत में गणेश कार्तिक आपस में बातें करते हैं कि पिछले वर्ष की माई तो बड़ी पुण्यात्मा थी। वह एक ही लाई में बांटकर हमें भी खिलाती थी और जो बचता था वह स्वयं ग्रहण करती थी परंतु यह स्त्री पुण्यात्मा नहीं लगती। भजन-पूजन का, दान पुण्य का ढोंग कर रही है। इसका फल भी इसे मिलना ही चाहिए। यह सोचकर वे दोनों आते हैं और धीरे से उस बूढ़ी के कान में एक पशु जड़ी लगा देते हैं। पशु जड़ी लगाते हैं रामधनी की सास पशु के रूप में परिवर्तित हो जाती है। जब रामधनी अपनी सासू माँ को वापस लेने गंगा घाट पर पहुँचते हैं तो देखते हैं कि उसकी सासू माँ तो वहाँ है नहीं बल्कि एक पशु उस कुटिया में है। वह उसे ही लेकर घर की ओर चल देते हैं। घर पर रामधनी की पत्नी छप्पन भोग पकवान बना कर रखती है एवं अपनी माँ के स्वागत की पूरी तैयारी करके रखती है परंतु रामधनी जब एक पशु के साथ घर आता है तो उसकी पत्नी दंग रह जाती है। वह पशु के पास जाती है उसे स्पर्श करती है। इसी क्रम में उसके काम से पशु जड़ी गिर जाता है और वह अपने वास्तविक रूप में आ जाती है। यह देखकर रामधनी की पत्नी दंग रह जाती है। वह कहती है- माँ, यह क्या हुआ! मेरी सासू माँ जब तीर्थ करने गई थी तो उन्हें पुण्य स्वरूप स्वर्ण बेल प्राप्त हुए थे परंतु आप पशु कैसे बन गई। रामधनी की सासू माँ ने सारी घटना कह सुनाई। उसने कहा बेटी तुमने तो मुझे साठ ही लाई दीया था जिसे मैं सुबह-शाम खाती थी एवं भजन पूजन करती थी। दो बालक आए थे एक सांवला एक गोरा उन्होंने मुझसे खाना मांगा परंतु मेरे पास तो देने के लिए कुछ था ही नहीं इसीलिए मैंने उन्हें वापस कर दिया। एक दिन उन्होंने ही कुछ लाकर मेरे कान में खोंस दिया जिससे मैं पशु बन गई।
सुनकर रामधनी की पत्नी अत्यंत व्यथित हुई। उसने अपनी माँ को समझाया- माँ मेरी सासू माँ ने 30 लाई में ही दान-पुण्य भी किया एवं स्वयं भी ग्रहण किया एवं पुण्य का फल प्राप्त किया परंतु आपने कुछ भी दान-पुण्य का कार्य नहीं किया जिसके परिणाम स्वरूप आपको यह फल प्राप्त हुआ। रामधनी ने अपनी माँ के ही पूर्ण फल से प्राप्त धन से अपने सासू माँ के नाम से भी तालाब खुदवाए, मंदिर बनवाए एवं दान पुण्य का कार्य किया।

इस प्रकार इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें सदा मिल-बांटकर खाना चाहिए। यही सबसे बड़ा धर्म है एवं पुण्य कार्य भी है। साथ ही सभी व्यक्तियों को उनके द्वारा किए गए कार्यों के आधार पर ही फल मिलता है।

उसी समय से कार्तिक भगवान को कार्तिक पूर्णिमा के दिन लाई का भोग लगाया जाता है।

सुमोना रिंकू घोष

म. वि. लत्तीपुर भागलपुर

नोट- यह कहानी लेखिका के स्वयं के हैं।

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