महर्षि व्यास के प्राकट्य की कहानी-हर्ष नारायण दास

Harshnarayan

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महर्षि व्यास के प्राकट्य की कहानी

          राजा उपरिचर, चेदि देश के राजा थे। वे बड़े धार्मिक एवं सत्यप्रतिज्ञ थे। उनके पास प्रचुर धन था। वे ब्राह्मणों के भक्त थे। उन्होंने इन्द्र की आराधना की  जिससे प्रसन्न होकर देवराज ने राजा को एक स्फटिक मणि का बना हुआ सुन्दर विमान दिया। राजा उपरिचर उस दिव्य विमान पर चढ़कर सर्वत्र विचरने लगे। उसपर बैठकर वे आकाशमार्ग से स्वच्छन्द यात्रा करते। उस विमान का भूमि से सम्पर्क नहीं हो पाता था। राजा उपरिचर के पत्नी का नाम “गिरिका” था। राजा के पाँच पुत्र थे। वे सभी बड़े बलिष्ठ एवं तेजस्वी थे। राजा ने अपने सभी पुत्रों को अलग-अलग देशों का राजा बनाकर स्थापित कर दिया।

एक समय की बात है, राजा अपने विमान पर बैठकर यात्रा कर रहे थे। यात्रा के दौरान उन्हें अपने पत्नी का स्मरण हो आया। पत्नी का स्मरण आते ही उनके ललाट से पसीना टपककर विमान से नीचे जा गिरा। वह पसीना रूपी वीर्य यमुना जल में रहनेवाली एक मछली के मुख में पहुँच गया। वह मछली अद्रिका नामक अप्सरा थी जो एक ब्राह्मण के शाप से शापित होकर यमुना नदी में रह रही थी। राजा उपरिचर के पसीने को पी जाने के कारण वह मछली रूपी अप्सरा गर्भवती हो गई थी। कुछ समय बाद वह मछली एक मछवारे के हाथ लग गयी। उस समय उसके गर्भ का दसवाँ महीना चल रहा था। मछुआरे ने उस मछली के पेट को जैसे ही चीरा उसमें से मनुष्याकार दो बच्चे निकले। दोनों ही बच्चे अत्यन्त ही सुन्दर थे। एक बालक था और दूसरी कन्या। इस आश्चर्यजनक घटना को देखकर मछुआरा संदेह में पड़ गया। उसने जाकर मछली के पेट से निकले दोनों बच्चों को राजा को सौंप दिया। राजा उपरिचर ने उन दोनों को अपने पास रख लिया। राजा ने बालक का नाम “मत्स्य” लड़की का नाम “मत्स्यगंधा” रख दिया। कुछ दिनों के बाद में वही मछुआरा पुनः राजा के पास आया और उसने बच्ची “मत्स्यगंधा” को अपनी पुत्री बनाकर पालने की इच्छा दर्शाया। निःसन्तान मछुआरे पर राजा को दया आ गयी और उसने “मत्स्यगंधा” को मछुआरे के हवाले कर दिया।

बालक मत्स्य बड़ा होकर धार्मिक, सत्यप्रतिज्ञ और पिता के समान ही शक्तिशाली बना। दूसरी ओर मत्स्यगंधा उस मछुआरे के घर पलकर सयानी हो गयी। वह भी अपने पिता के साथ यमुना नदी तक जाती और अपने पिता के कामों में हाथ बंटाती थी।
एक समय की बात है, महर्षि पराशर तीर्थ यात्रा के क्रम में घूमते हुए यमुना नदी के पावन तट तक आ पहुँचे। उन्हें नदी के उस पार जाना था। उस समय केवट भोजन कर रहा था। महर्षि पाराशर ने उससे कहा- तुम नाव से मुझे यमुना के उस पार पहुँचा दो।
केवट यमुना के तट पर ही खा रहा था। उसने मुनि की आज्ञा को सुनकर अपनी पुत्री मत्स्यगंधा से कहा-  बेटी! तुम नाव खेवने में चतुर हो। ये मुनि धर्मात्मा एवं तपस्वी हैं। इन्हें उस पार जाने की इच्छा है। तुम नाव पर चढ़ाकर इन्हें उस पार पहुँचा दो। पिता की आज्ञा को मानकर मत्स्यगंधा ने महर्षि पाराशर को नाव पर बिठा लिया और उस पार ले जाने लगी। नाव यमुना के जल को पार कर रही थी। मत्स्यगंधा को एकाग्रचित होकर नाव खेवते हुए देख मुनि ने कहा- “सुन्दरी! तुम अत्यन्त ही रूपवती एवं लगनशील हो, परन्तु तुम्हारे शरीर से इस प्रकार की मछली की गंध आ रही है जिससे तुम्हारी सुन्दरता क्षीण हो जा रही है।”
मत्स्यगंधा ने कहा- “मुनिवर! मेरा जन्म ही मछली की कोख से हुआ है और मैं मछुआरे की पुत्री के रूप में रह भी रही हूँ। मछली पकड़ना ही मेरा कार्य है। इसी कारण मेरे शरीर से निरन्तर मछली की गंध आती रहती है।”
मत्स्यगंधा के इस प्रकार वचन निकालते ही महर्षि पाराशर ने अपने तपोबल से उसे कस्तूरी गंधवाली बना दिया। अब मत्स्यगंधा के शरीर से कस्तूरी की गन्ध निकलने लगी। यह सुगन्ध ऐसी थी कि इसका प्रभाव चार कोस तक फैल गया। महर्षि ने उसी समय उसका नाम मत्स्यगंधा से बदलकर सत्यवती रख दिया।

मत्स्यगंधा अपने इस विचित्र बदलाव से अत्यन्त प्रसन्न हो उठी। वह अपने शरीर से निकलने वाली सुगन्ध में इतनी मस्त हो गयी कि उसे नाव खेवने का ध्यान ही नहीं रहा और नाव असन्तुलित होकर नदी में डूब गई। नदी में नाव को डूबते देखकर महर्षि ने सत्यवती को बचाने का प्रयास किया। बचाने के क्रम में महर्षि ने सत्यवती को अपनी बाहों में उठा लिया और नदी के किनारे लाकर लिटा दिया। कुछ देर बाद सत्यवती को होश आया। उसने स्वयं को यमुना तट पर देखा तथा पास ही महर्षि को चिन्तित मुद्रा में बैठे देखा। होश आते ही वह घबराकर उठ बैठी क्योंकि उस एकान्त स्थान पर उसके एवं ऋषि के सिवा और कोई नहीं था। वह उठी और महर्षि के समीप जाकर बोली-  “मुनिवर! आज आपने न सिर्फ मेरे शरीर के दुर्गन्ध को सुगन्ध में बदला है बल्कि मुझे डूबने से बचाकर दूसरा जीवन भी दिया है। अतएव आप मुझे अपने चरणों में स्थान देकर अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारें।
महर्षि पाराशर ने इस अनहोनी घटना को भगवान विष्णु की माया माना और सत्यवती को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया महर्षि ने सत्यवती से कहा-“परसन्नवदने! तुम्हारा पुत्र पुराणों का रचयिता होगा। वेद के रहस्य को समझकर उसे चार भागों में बांट देगा। तीनों लोकों में उसकी प्रतिष्ठा सुस्थिर रहेगी। इतना कहकर महर्षि पाराशर अन्तर ध्यान हो गए।

सत्यवती प्रसन्न मन से अपने पिता के घर लौट आयी। महर्षि पाराशर की कृपा से वह पुत्रवती थी।समयानुसार सत्यवती ने यमुना के द्वीप में ही पुत्र को उत्पन्न किया। उत्पन्न बालक जान पड़ता था मानो कोई दूसरा कामदेव ही हो! वह तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होते ही युवक बन गया। वह युवक अपनी माता के पास आकर बोला- माँ मुझमें असीम शक्ति है। मन को तपोनिष्ठ बनाकर ही मैं आपके उदर में प्रविष्ट हुआ था। अब आप इच्छानुसार जा सकती है। मैं भी तपस्या करने जा रहा हूँ। हे माता! आप जब भी मुझे याद करेंगी तभी मैं आपके सामने उपस्थित हो जाऊँगा। जब कभी आपके समक्ष अत्यन्त कठिन परिस्थिति आ जाए तो मुझे स्मरण अवश्य करना। मैं उसी क्षण सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा । माता!आपका कल्याण हो। मेरे जाने में विलम्ब हो रहा है। आप चिन्ता छोड़कर आनन्द से जीवन व्यतीत करें।
सत्यवती ने यमुना-द्वीप में उन्हें (व्यासजी) को जन्म दिया था इसी से व्यास जी को “द्वेपायन” नाम से भी जाना जाता है। वे भगवान विष्णु के अंशावतार हैं, अतः जन्म लेते ही युवक बन गये। वेद का विस्तार करने के कारण उनका नाम “वेदव्यास” पड़ गया।पुराण, संहिताएं, महाभारत सभी उन्हीं की रचनाएं हैं।वेदों का विभाजन करके उन्होंने अपने शिष्यों को पढ़ा दिया। महर्षि सुमन्त, जैमिनी, पैल, वैशम्पायन, आसित, देवल तथा शुकदेव जी सभी उनके शिष्य थे।
महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित अठारह पुराण हैं। इन सभी पुराणों में एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ कथाएँ हैं, जिनको पढ़कर चारित्रिक एवं बौद्धिक विकासों में वृद्धि होती है। इन प्रेरक कथाओं के माध्यम से जीवन में नवीन आशाओं की जागृति होती है तथा सद्प्रवृतियों का आगमन होता है जिससे आत्मबल एवं आत्मविश्वास में वृद्धि होती है।
महाभारत, पुराण, वेद के रचनाकार को कोटिशः नमन।।

प्रेषक–हर्ष नारायण दास
मध्य विद्यालय घीवहा(फारबिसगंज)अररिया
मो०न० 8084260685

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