नशा-अरविंद कुमार

नशा

(इस कहानी के पात्र, घटनायें व स्थान काल्पनिक है, इसका उद्देश्य मनोरंजन है।)

“नमिता अरे ! ओ नमिता !…….. लड़खड़ाते कदम, बहकी आवाजें, मुंह से निकलते विशेष दुर्गंध को वातावरण में बिखेरते हुए राजू ने दरवाजा खटखटाया
खट…खट..खट..खट..खट

“आती हूं ”

“ये लो नमिता पूरे पांच हजार है ”
“इतने पैसे ”
“अरे आज वो अपना दिन बहुत लक्की था, खूब खाया-पीया और ऊपर से पांच हजार जीता भी हा–हा-हा-हा-हा-हा “शराब के नशे में धूत राजू लड़खड़ाती आवाज में अठाहास करते हुए बोला ।

राजू की अपेक्षा के विपरीत पांच हजार रुपये पाकर नमिता खुशी के बजाय चिंतित थी। वह रून्धे गले से बोली “अब शराब के साथ-साथ जुआ भी खेलने लगे हो”

“ये रोनी सूरत मत दिखा मुझे, मैंने सोचा तू खूश होगी, प्यार से खाने को दोगी, मगर कुत्ते की दूम कभी सीधी नही हो सकती। ह-ह-ह.. तूम मुर्ख हो, जिसे तूम जुए का धन समझ रही हो, वो साक्षात लक्ष्मी है ..लक्ष्मी और फिर ये तो लक्ष्मी ही जाने, कि उसे जाना कहां है? तूम चुप कर, मैं अच्छी तरह जानता हूं, जहां लक्ष्मी का अनादर होता है, वहां ये कभी नही जाती। पलक झपकाते, मुंह बिदकाते, हिलते-डुलते, लाल-लाल आंखे तरेरते राजू ने नमिता से कहा ।

रोज की तरह पति-पत्नी के बीच कुछ देर वाद-विवाद का दौर जारी रहा, फिर नमिता के हाथ से वापस रूपये छीनते हुए राजू घर से बाहर निकल गया। खाने के लिए अनुरोध करते हुए नमिता उसके पीछे-पीछे दरवाजे तक गई, हाथ भी पकड़ी मगर वो नमिता को धकेलते हुए घर से बाहर निकल गया।

राजू अय्याशी के रास्ते पर इतना आगे निकल चुका था, जहां से वापसी की उम्मीद धुंधली प्रतीत हो रही थी । ठीक वैसे ही जैसे कई मील आगे निकल जाने के बाद पलटकर पीछे देखने पर तय किये हुए रास्ते ओझल लगने लगते है।

राजू सोचता मैं जो कुछ भी करूं, नमिता उसे मूक दर्शक बनकर स्वीकार करती रहे। उसकी गलती पर भी उससे रूठने के बजाय उनका प्रेम पूर्वक सत्कार करें। नमिता कई बार राजू को छोड़कर वापस मायके जाना चाहती थी, मगर वो सोचती अगर मायके चली गई, तो इनका ख्याल कौन रखेगा, ये और बिगड़ जाएंगे। सब कुछ बेच-बाचकर सत्यानाश कर देगें, इन्हीं बातों को सोचकर वह मायके जाने का विचार बदल दिया करती थी।

“क्या हुआ, बड़े गुस्से में सिगरेट फूंक रहे हो” सुकैला चौराहा पर सुजीत ने राजू को चिढाते हुए कहा ।

“अरे यार रोज की किचकिच से मैं तंग आ गया हूं, जब मैं नमिता को सारी सुविधा दे रखा हूं, फिर भी वो मेरे पीछे ही पड़ी रहती है। ये न करो वो न करो, दिमाग खराब कर देती है।”

इधर दूसरी तरफ मंजू अपनी सिसकती भाभी नमिता को ढांढस बंधाते हुए रोटी खिलाने का प्रयास कर रही थी ।

“लो भाभी रोटी खा लो ”

“नहीं मुझे भूख नहीं ”

“देखे भाभी आप नही खाइयेगा तो मैं भी नहीं खाऊँगी” मंजू तुनककर प्यार भरा रौब जमाते हुए बोली ।

“ठीक है बैठो” मंजू और नमिता एक साथ बैठकर खाना खाने लगी।

मंजू तंद्रा भंग करते हुए बोली
“एक समय था भाभी, जब गांव हो या स्कूल, हर जगह राजू भैया के चर्चे हुआ करते थे। स्कूल के सभी शिक्षक राजू भैया से बहुत प्यार करते थे। खेल-कूद हो या पढ़ाई, भैया हर जगह अव्वल थे। सभी कहते थे, एक रोज राजू बहुत बड़ा ऑफिसर बनेगा, जबतक मां जिंदा रही भैया पर उनका विशेष ध्यान था, उनके मृत्यु के दो साल बाद पिताजी भी मधेपुरा ब्लाक से रिटायर्ड हो गये। मां की मृत्यु, पिताजी के लिए किसी सदमे से कम न था, मां की याद में पिताजी भी दिन-ब-दिन गलने लगे। फिर आप इस घर में आई, मेरी उम्मीदों के अनुरूप आप मेरी भाभी से ज्यादा मेरी सहेली साबित हुई “। मंजू की आंखें छलक आई थी उनकी बातों में एक विशेष प्रकार का दर्द छिपा था।

एक लम्बी सांस भरते हुए नमिता बोली “काश! बाबूजी कुछ दिन और जिंदा रहते तो उनके रिटायरमेंट वाला पैसा इनके हाथ न आता, वही पैसा इनके लिए घातक साबित हुआ। फोकट में मिले धन की लोग इज्जत नही करते वो धन इनके जिन्दगी के मायने ही बदलकर रख दिया। जो लोग अपने बच्चों के लिए धन छोड़कर स्वर्ग सिधार जाते है वो अपने बच्चों के लिए धन नही बल्कि मौत का सामान छोड़ जाते है। रिटायरमेंट के सारे पैसे इसने अय्याशी में खर्च कर दिये। अब मुझे तुम्हारी शादी की चिंता खाई जा रही है।

“छोड़ो न भाभी मुझे नही करनी शादी-वादी “लजाते हुए मंजू बोली।

किसी तरह साल भर बाद नमिता अपने मायके वालो की मदद से मंजू के हाथ पीले करवाने में सफल हुई । ये शादी भी कोई शादी थी, कहां फूल सी नाजुक मंजू और कहां कला-कलुटा मोटा सा दिखने वाला चेशमल्ली मनोज बिल्कुल बेमेल विवाह। वैसै दहेज के भार से लड़खड़ाती ऐसी शादी हमारे समाज में कोई नई बात नही है। खैर सुकून की बात यह थी की मनोज पैसे के मामले में संपन्न व्यक्ति था। मंजू दिल पर पत्थर रखकर ससुराल विदा हुई ।

आज मंजू के पिता मथुरा दास जिंदा होते तो न जाने अपनी इकलौती बेटी की शादी किस धूमधाम से करते। हालांकि उन्होंनें मंजू की शादी के लिए कई जगह बात छेड़ रखी थी मगर सही घर-वर के चक्कर में बिलंब हो रहा था। लेकिन तबतक में बेवफा जिस्म ने उनके आत्मा का साथ देना ही छोड़ दिया।

समय तेज रफ्तार से अपनी गंतव्य स्थल की ओर बढ़ रही थी, इस रफ्तार में कुछ रिश्ते पीछे छूट रहे थे तो कुछ अनचाहे रिश्ते सामने भी आ रहे थे। राजू कंगाल हो चुका था, उसे बड़ी मुश्किल से भरगामा ब्लॉक चौक पर फोटो स्टेट व मिनी बैंक की दुकान में बतौर मजदूर काम मिला था।

चेहरे पर पड़ी झुडियां, काले होठ, चिपके हुए गाल को देखकर कोई कह भी नही सकता था, की कभी सूख की मखमल पर सोने वाला यह वही राजू है । जो आज चिथरे के सहारे दिन काट रहा है ।

अरविंद कुमार, भरगामा, अररिया की कलम से ✍️✍️✍️✍️

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