पिता
पिता को शब्दों में परिभाषित करना मुमकिन नहीं है क्योंकि पिता की सीमाएं अनंत है। पिता से ही हमारी पहली पहचान होती है। जब हम छोटे होते हैं तो सर्वप्रथम किसी के भी द्वारा हमसे हमारे पिता का नाम ही पूछा जाता है।
मां यदि हमें ठंढी छांव देकर पालती-पोषती है तो पिता कड़क धूप में मेहनत कर हमारे सारे सपनों, सारी इच्छाओं को पूरा करते हैं। मां यदि बच्चे को ममता से सींचती हैं तो पिता अपने खून-पसीना से हमें सींचते हैं।
पिता के बिना तो हमारी मां भी अधूरी है। उनके बिना पूरा परिवार ही अधूरा है। पिता ही हमारे परिवार की नींव और आधार होते हैं। हर मुश्किल वक्त में सहारा और हौसला देने वाले पिता ही वह इकलौता शख्स हैं जो खुद से ज्यादा हमारी कामयाबी की दुआ करते हैं। हर हालात से जूझने की शक्ति प्रदान करते हैं और हमारे मार्गदर्शक भी होते हैं।
लेकिन आज के इस बदलते परिवेश में पिता-पुत्र के आपसी संबंधों पर ग्रहण लगता हुआ दिख रहा है। हमारे पवित्र रिश्ते पर आधुनिकता ने अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया है। आज की कुछ पीढियां मां-बाप को बोझ समझती हैं और उन्हें वृद्धाश्रम ही एकमात्र विकल्प सूझता है। ऐसे में जरा सोचिए कि उन मां-बाप पर क्या बीतती होगी जिसने अपने जीवन के हर खूबसूरत लम्हों में अपने बच्चों के साथ कई अनगिनत सपने देखे होंगे। पोते-पोतियों के साथ खेलने की उम्मीद लगाए बैठे होंगें। जिस माता-पिता ने खुद भूखा रहकर बच्चों को भरपेट खिलाया है, बच्चों को पाने के लिए मां-बाप ने कितनी मन्नतें मांगी होंगी, दर-दर की ठोकरे खायी होंगी। क्या इसी दिन के लिए कि एक दिन मेरा पुत्र ही मुझे वृद्धाश्रम पहुंचा देगा। लेकिन यह मां-बाप का ही दिल है जो वृद्धाश्रम मे रहकर भी अपने बच्चों के सुखद भविष्य की कामना करते हैं।
बच्चों के मन में पनपती ऐसी कुंठित विचारधाराएं उनके जीवन में कभी सुख की अनुभूति नहीं होने देगी क्योंकि माता-पिता के अरमानों को कुचलकर भावी पीढ़ी कभी अपना आशियाना नहीं बना सकती। यह बातें उन्हें समझनी होगी कि मां-पिता के आशीर्वाद से बढकर और कुछ भी नहीं, उनके चरणों में ही चारों धाम है।
भगवान का स्वरुप है पिता,
हमारा सच्चा दोस्त है पिता,
परिवार में प्रतिपल राग है पिता,
मां की चूड़ी और सुहाग है पिता,
मेरी शोहरत, मेरा रूतबा, मेरा मान है पिता,
ऊपर वाले की रहमत और वरदान है पिता।
नूतन कुमारी
पूर्णियाँ बिहार