राखी का मोल-संजीव प्रियदर्शी

Sanjiv

Sanjiv

राखी का मोल

          उस समय मेरी उम्र तेरह-चौदह वर्ष की थी। मैं अपनी भाभी के साथ शाम की ट्रेन से गया जा रहा था। शायद भाभी के बड़े भाई की तबियत जोरों से ख़राब थी। पत्र पाते ही भाभी मैके जाने को व्यग्र हो उठी। पहले तो वह घंटों रोई फिर जैसे जाने के लिए अनशन पर उतर आई थी। भैया रांची में काम करते थे, सो घर में मर्द के नाम पर मैं ही था। अगर मां नहीं जाने देती तो हो सकता था भाभी ही हमलोगों के लिए संकट बन जातीं। पहले तो मां यह निर्णय नहीं ले पा रही थी कि भाभी को मैके भेजे अथवा नहीं। फिर सोची एक तो बेचारी के भाई की जान संकट में है, दूजा दो दिन बाद रक्षाबंधन। आखिर मां सशंकित मन से हां तो भर दी परन्तु हमलोगों को सख्त हिदायत भी दे डाली कि यदि गाड़ी में ज़्यादा मुसाफिर न हो तो वे क्यूल स्टेशन पर ही रात गुजारकर सुबह की गाड़ी से गया जायेंगे। आगे रात का सफर सुरक्षित नहीं है।
उस समय हमारी रुट से एक ही पैसेंजर ट्रेन गया आती-जाती थी, वह भी लेट-लपाट। क्यूल के बाद इसमें गिनती के लोग ही सफर करते थे। ट्रेन रवाना करने से पहले ड्राइवर और गार्ड गाड़ी के सभी यात्रियों को एक ही डिब्बे में बिठाकर आगे बढ़ते। उस समय इस ट्रेन में असामाजिक तत्त्वों द्वारा नुकसान पहुंचाने तथा रेल अधिकारियों की असहिष्णुता से पंखे एवं बल्वें गायब अथवा जलने की स्थति में नहीं होतीं। सुरक्षा के नाम पर सिर्फ ईश्वर का भरोसा रहता था।
हमलोग क्यूल से आगे बढ़ चुके थे परन्तु बाद का सफर काफी भयावह था। पूरी ट्रेन के यात्री आगे के डिब्बे में बैठे थे जिनकी संख्या पंन्द्रह- सत्रह से अधिक नहीं थी।
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जब ट्रेन शेखपुरा से आगे एक छोटे स्टेशन पर रुकी तो वहां चार की संख्या में संदिग्ध किस्म के लोग सवार हो गए। सभी की उम्र तीस-पैंतीस के बीच होगी। वे काले कपड़ों से आधा चेहरा ढांके हुए थे। पहले वे टार्च जलाकर सभी यात्रियों का जायजा लिया फिर थोड़ी दूर खाली पड़ी सीट पर बैठकर आपस में जोर-जोर से बतियाने लगे। उनके संवाद से ऐसा प्रतीत होता था जैसे वे प्राय: लूटने-छीनने का धंधा किया करते हैं और पुलिस की नज़रों से छिपते फिर रहे हैं। उनकी हरकतों से यात्री भेड़ियों के बीच हिरणों के झुंड की भांति डरे-सहमे हुए थे। डिब्बे में मात्र एक ही बल्व जल रहा था, वह भी दम तोड़ती रौशनी लिए भुक-भुक। हाॅ़, बीच-बीच में एक दो यात्री टार्च अथवा बीड़ी-सिगरेट पीने के क्रम में माचिस की तीलियां जलाकर लोगों के होने का भान करा देते।

अगले स्टेशन आने के पूर्व वे हम लोगों को लूटने की फिराक में थे। शायद उनके खतरनाक इरादों को भांप कर भाभी को न जाने क्या सूझा, वह सबसे बड़े सरदार-सा दिखने वाले लुटेरे को इंगित कर बोली- “भैया जी, यह गाड़ी नवादा कब तक पहुंचेगी ?”
भाभी के ‘भैया जी’ कहने पर पहले तो वह अकचकाया। फिर संभल कर बोला – “क्यों नवादा ही उतरना है?”
“नहीं, मुझे तो गया जाना है।” भाभी ने कहा।
फिर नवादा जाने का समय क्यों पूछा?”- उसने आश्चर्य जताया।
“भैया जी, आगे जाने में काफी भय लगता है।” भाभी के चेहरे पर वास्तव में आतंक के बादल छाये हुए थे।
वह कुछ समय चुप रहा, फिर गंभीर होकर बोला- ” आप गया तक जाओ, डरने की कोई बात नहीं।”
“लेकिन आगे तो – — – -।” भाभी की आवाज जैसे गले में दम तोड़ दी थी।
“मैंने कहा न, आगे कोई खतरा नहीं होगा। तुम्हारी हिफाज़त के लिए मैं साथ चल रहा हूॅं।” उसकी आवाज में विश्वास भरा था।

बड़े का भाभी के प्रति हमदर्दी देख उसके तीनों शागिर्द उसपर बिगड़ पड़े। एक ने विरोध जताते हुए कहा -“यह आप क्या बोल रहे हैं दादा ? धंधे में रिश्ते और ग़मख्वारी नहीं चलते।”
तुम लोगों ने सुना नहीं, इसने क्या कहा ? भैया कहा है। और भाई का धर्म है बहन की रक्षा करना। चाहे वह जन्म की हो अथवा धर्म की।” उसने समझाया।
“हम लुटेरे हैं और हमारा एक ही धर्म है लोगों को लुटकर अपना एवं परिवार का भरण-पोषण करना।”  दूसरे ने अपना पक्ष रखा।
“हम लुटेरे जरुर हैं, पर हामारा भी कोई ज़मीर है।देखो, कितनी आश लिए भाई को राखी बांधने जा रही है। मैं इसका विश्वास कभी खंडित होने नहीं दूंगा। जान पर खेलकर इसकी हिफाज़त करुंगा।” उसने अपनी जेब से एक चमचमाता हुआ चाकू निकालकर तीनों के सामने लहराने लगा। दादा के रौद्र रूप देख तीनों सहमकर इधर-उधर बिदक गये।

जब ट्रेन नवादा पहुंची तो वहां और भी कई यात्री सवार हुए। लोगों की संख्या और दादा के अद्भुत भगिनी प्रेम से अविभूत भाभी उससे बोली – “मैं आपका यह उपकार कभी नहीं भूलूंगी। आपके स्नेह ने मेरा सारा भय दूर कर दिया है पर एक आग्रह है, अब आप लौट जाएं। मैं सकुशल चली जाऊंगी।”
पहले तो वह तैयार ही नहीं होता था पर काफी अनुनय के बाद वह लौटने को राजी हुआ और यह कहते हुए ट्रेन से उतरा, ” यदि रास्ते में कोई डाकू-लुटेरा आ जाये तो उसे बता देना, मैं दादा सरदार की बहन हूं। कोई नज़र उठाकर नहीं देखेगा।” इतना बोलकर वह चल दिया।

दादा सरदार अभी थोड़ी दूर गया होगा कि भाभी को अनायास कुछ ध्यान आया। वह खिड़की के पास जाकर भैया जी, भैया जी पुकारने लगी। आवाज सुनकर दादा फौरन लौट आया। तभी भाभी ने अपने बैग में हाथ डालकर कुछ निकाली। वह एक राखी थी। उसने दादा के हाथ में राखी बांध दी‌। दादा किंकर्तव्यविमूढ़ ! भाभी के इस अप्रत्याशित कृत से वह विह्वल-सा हो गया। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह राखी का ऋण कैसे चुकता करेगा। फिर भाभी के सिर पर हाथ रखते हुए रुंधे गले से बोला – ‌”बहन, मैं इस रक्षाबंधन का कोई मोल तो नहीं चुका सकता। पर हां, तुम्हारा भाई एक वचन जरुर दे सकता है। यह कि आज के बाद मैं दादा सरदार नहीं बल्कि सिर्फ मोहन सिंह बनकर जीवन गुजारुंगा। सारे गलत धंधे आज से बंद।” कहते हुए वह प्लेटफार्म से बाहर की तरफ बढ़ गया।

ट्रेन खुल चुकी थी। भाभी उसके ओझल होने तक उसे एकटक देखती रही। मैंने सुन रखा था पत्थर दिल डाकुओं की आंखों में आंसू नहीं होते पर उसने तो अपने आंसुओं में हम सबको डूबो दिया था।

संजीव प्रियदर्शी
बरियारपुर, मुंगेर
8789182068

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