सम्मान-डाॅ. अनुपमा श्रीवास्तव

सम्मान

          सौभाग्य से मेरा जन्म एक शिक्षक परिवार में हुआ था। मेरे पिताजी शिक्षक थे।परिवार में और लोग भी शिक्षक हैं। सो मेरे रग-रग में शिक्षक का गुण था। बचपन से ही मैं ऐसे माहौल में पली जहाँ चारों तरफ शिक्षक और शिक्षा ही थी। मुझे पढ़ने में तो रुचि थी ही पढ़ाने में काफी रुचि थी। अक्सर पिताजी को पढ़ाते देखती थी तो मेरी भी यही इच्छा रहती थी। बचपन की एक घटना मुझे अभी भी याद है।एक बार मुझे सिर्फ इसलिए कक्षा से बाहर निकाल दिया गया क्योकि मैं अपना छोड़ दूसरे का प्रश्न पत्र हल कर रही थी! जैसे-जैसे बड़ी होती गयी मेरी अभिरुचि बढती जा रही थी। मेरे सहपाठी मेरे आगे पीछे लगे रहते थे क्योंकि मैं उन्हें गृहकार्य में मदद करती थी लेकिन पढ़ना तो ठीक था पर पढ़ाने का काम मेरे पिताजी को बिल्कुल पसंद नहीं था।

वे अक्सर मुझे कहा करते थे कि जितना पढ़ना है पढ़ो लेकिन “मास्टर साहब” बनने की जरूरत नहीं है। मैं सोच में पड़ जाती कि वो खुद शिक्षक है फिर ऐसी बात क्यों करते हैं। कहतें हैं न कि “नेचर और सिग्नेचर” बदलने से नहीं बदल सकता। मैं तो पिताजी को ही अपना गुरु मानती थी।

ज्ञान एक ऐसा धन है जिसे जितना बाटो बढ़ता ही जाता है। मुझे बहुत सुकून मिलता था। मैं पास-परोस के बच्चों को पढ़ाने लगी।पिताजी के आने से पहले ही सभी को घर भेज देती। ऐसा नहीं था कि मैं अपनी पढ़ाई में पीछे थी। कक्षा में हमेशा प्रथम स्थान प्राप्त करती थी।

एक बार मैं कुछ बच्चों को पढा रही थी।संयोगवश उन्होनें देख लिया। मुझे तो कुछ नहीं कहा पर माँ को डाँट पड़ी। माँ मेरा हरदम पक्ष लेती थीं। वो मेरे और पिताजी के बीच ढाल बन कर खड़ी हो जाती। मैनें एक दिन पिताजी से पूछ डाला कि “आपको मेरा पढ़ाना क्यों अच्छा नहीं लगता”? उन्होने कहा- “देखो बेटा अब पहले वाली बात नहीं है कि लोग शिक्षक को सिर-माथे पर बिठाते थे। उनकी पूजा करते थे।पहले वाला समय अब नहीं रहा। हमलोग आज भी अपने शिक्षकों का चरण स्पर्श करते हैं। भले ही वो रिटायर हो गए हैं फिर भी उनकी प्रतिष्ठा कम नहीं हुई है। पर आज शिक्षक की कोई प्रतिष्ठा नहीं है। उन्हें वो इज्जत नहीं दी जाती जो एक शिक्षक की होनी चाहिए। शिक्षक मूल्यहीन हो चुके है। गुरु-शिष्य परम्परा तो विलुप्त हो चुकी है। लोगों का सोच है कि कहीं और जगह नही मिली तो शिक्षक बन गया। बच्चे भी आदर करना भूल गये हैं। सामने से गुजर जाते हैं अनदेखा करके, सिर झुकाना तो दूर की बात है। इसीलिए मैं कहता हूँ पढ़ो और कोई अन्य कहीं नौकरी में किस्मत आजमाओ।पिताजी समझाते रहे मैं चुपचाप सुनती रही। उनकी सारी बातें मेरे ऊपर से निकल गई थी ।

समय निकलता गया मेरी पढ़ाई पूरी हो चुकी थी। मैं ढेर सारे प्रतियोगी परीक्षा में बिना मन का बैठी। मगर मेरी मर्जी तो शिक्षक बनने की थी वो पूरी हो गई। कहते हैं कोई चीज दिल से माँगी जाय तो वह अवश्य पूरी होती है। माँ बहुत खुश थी। पर पिताजी ने उपरी मन से आशीर्वाद दिया। इसका मुझे कोई मलाल नहीं था। क्योकि मैं कोई और नौकरी करना भी नहीं चाहती थी। मैं पूरे तन-मन से लग गई शिक्षा दान में। कुछ दिन में ही मैं बच्चों के साथ-साथ विद्यालय में लोकप्रिय हो गई। मैनें सभी बच्चों को यह अधिकार दिया कि वो जब चाहें मुझसे सहयोग ले सकते हैं।

सही शिक्षक की पहचान वही है जो दुनियाँ में ज्ञान की रोशिनी फैलाये। शाम का समय था। पिताजी बाहर बैठकर अपने एक मित्र से बातें कर रहे थे। मैं विद्यालय से जैसे ही घर पहुँची बोले- ” देखो तो एक लिफाफे में कुछ आया है तुम्हारे नाम से। मैं भी उत्सुकतावश लिफाफे को खोलकर देखने लगी। मेरी तो खुशी का ठिकाना नहीं था मुझे सर्व-श्रेष्ठ शिक्षक का निमंत्रण पत्र मिला था “शिक्षा विभाग” की तरफ से। मेरे आँखों में खुशी के आसूँ थे।पिताजी ने जोर से कहा..क्या है लिफाफे में ?मैनें कहा- “शिक्षा सेवा सम्मान” एक शिक्षक को मिली है पिताजी ! मैनें देखा उनकी आँखे भी भर आई थीं ।

स्वरचित
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
आर के एम +2 विद्यालय
जमालाबाद, मुजफ्फरपुर

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