कृतज्ञता
सौरभ आज अपने खिड़की पर उदास बैठा था। खिड़की के सामने बेल का पेड़ था जिसे आज मजदूर काटने आएंगे। पापा चार दिन पहले किसी के हाथ इसे बेच दिए। कल वह मजदूर को दिखाने आए थे।
पापा – क्या बात है, सौरभ आज तुम बहुत उदास हो? मेरे बेटे की उदासी का कौन सा ऐसा बात है जिसे मैं नहीं दूर कर सकता हूं।
सौरभ – नहीं, पिताजी मैं सोच रहा हूं कि प्रकृति हमारी कृतध्नता से आहत होने के कारण अनुदार हो गई है। हम सभी इस अनुदारता के कारण त्रस्त है, पर सचेत नहीं होते।
पापा – आज तो मेरा बेटा बिल्कुल दार्शनिक के जैसा बात कर रहा है।
सौरभ – पापा, आपको याद है ना दो साल पहले मुझे बड़ा सा फोड़ा हो गया था। मैं भी पीड़ा से व्याकुल था और आप भी चिंतित थे कि कैसे इसे चिरा लगवाएं। तब दादी ने हमारी सारी चिंता दूर कर दिया।
वह बेल के पत्तों को पीसकर फोड़ा के चारों तरफ से लगा दी थी। ऐसा दो-तीन बार किया गया तब फोड़ा स्वंय बिना दर्द के फूट गया। उसके बाद दादी उसको साफ़ कर पट्टी लगा दी। आप भी बहुत खुश हो गये थे। यह भी तो याद होगा पापा कि जब गुड्डी के पेट में बराबर दर्द हुआ करता था तब दादी उसको बेल के पत्ते का रस निकाल कर पिलाती जिसके बाद उसको जोंक से निजात मिला।
पापा सौरभ की बात सुनकर काफी लज्जित हुए। उन्होंने सौरभ से कहा कि सचमुच हम कृतध्न हैं। अब मैं तुम्हारी उदासी का कारण समझ गया हूं। तुमने मेरी आंखें खोल दिया। अब मैं पेड़ काटने नहीं दूंगा।
सौरभ पापा के निर्णय से बहुत खुश हुआ।
कुमारी निरुपमा
बेगूसराय बिहार
एक अच्छी और सूचनापरक बोधकथा। बढ़िया लिखा है आपने दीदी।