मोहन-सुधीर कुमार

Sudhir

मोहन

          हाल ही की बात है। एक दिन शाम के वक्त मैं घूमने के लिए बाजार की ओर चला गया। कुछ देर इधर-उधर घूमने और कुछ खरीददारी करने के बाद चाय पीने के विचार से मैं एक होटल में जा बैठा और चाय का ऑर्डर दे दिया। कुछ ही देर बाद एक आठ-दस साल का लड़का एक कागज के कप में चाय लेकर आ गया और मेरे सामने टेबल पर रख दिया। मैंने उस लड़के के तरफ देखा तो देखता ही रह गया। गजब का आकर्षण था उसमें। सुंदर गोल चेहरा, गेहूंआ रंग, लम्बीं नाक, घुंघराले बाल। मैं अनायास ही उसकी ओर आकर्षित होने लगा। अभी वह जाने के लिए मुड़ा ही था कि मैंने उसे रोक लिया और पास बुलाकर पूछा, “क्या नाम है तुम्हारा?”
मोहन, उसनेे छोटा सा जवाब दिया।
“घर कहां हैं तुम्हारा?” मैंने अगला सवाल किया।
“यहीं बगल में” उसने हाथ के इशारे से बताया।
“क्या तुम्हें स्कूल जाने और पढ़ने की इच्छा नहीं होती है कभी?” मेरे इस सवाल पर वह थोड़ा सा रुका, फिर बोला, “होती तो है पर मां जाने नहीं देती।”
उसके इस बात पर मैंने उस लड़के का हाथ पकड़ा और कहा, “मुझे अपना घर ले चलो, अभी, तुरन्त।”
उसके हां कहने पर मैंने होटल के मालिक से उसे उसके घर ले जाने की आज्ञा मांगी। मालिक मुझे पहचानता था, इसलिए उसने आज्ञा दे दी और मैं उस लड़के के साथ उसके घर जा पहुंचा। उसने अंदर जाकर फौरन मां को बुला लाया। उसकी मां एक बहुत ही गरीब महिला थी जिसके कपड़े कुछ फटे हुए और गंदे से थे। मैंने उसे अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं एक शिक्षक हूं और अगले चौक वाले स्कूल में पढ़ाता हूं। आप इसे स्कूल क्यो नही भेजती। मेरे इस बात पर वह कुछ उदास हो गई, फिर बोली, “पहले भेजती थी सर, मगर जबसे इसके पिताजी की मृत्यु हुई है तबसे घर की हालत बहुत खराब हो गई है, इसलिए इसे होटल में रखवा दिया है।”

उसके पिताजी के बारे में जानकर मुझे बहुत दुःख हुआ। मैंने उसे समझाते हुए कहा, “कोई बात नहीं, सुख-दुख होता ही है। इसकी पढ़ाई मत छुड़वाईए। अभी इसके पढ़ने का समय है। इसका फिर से नाम लिखा दिजीए और स्कूल भेजिए।”

“लेकिन सर, इसका खर्च कहां से आएगा?” उसने अपना संशय प्रकट किया।
“सरकारी विद्यालय में पढ़ाई में कोई खर्च नहीं लगता है। “मैंने कहा, “दोपहर का खाना स्कूल में ही मिल जाएगा। कपड़े और किताब के पैसे खाते में आ जाएंगे। अन्य खर्चे के लिए छात्रवृत्ति भी मिल जाया करेगी।”
“लेकिन सर—-” वह कुछ बोलने ही वाली थी कि मैंने उसे रोकते हुए कहा, “मैं आपकी परेशानी समझता हूं। न हो तो आप ही कहीं कोई काम खोज लिजीए पर बच्चे की जिंदगी बर्बाद मत किजीए। इसे कल से ही स्कूल भेजिए। नामांकन मैं आकर स्वयं करवा दूंगा।”
“ठीक है सर” वह निर्णायक स्वर में बोली।
मैंने आगे पूछा, “इसकी पिछले साल की किताबें, कपड़े और बैग तो होंगे न?”
“हां सर, सब रखा हुआ है” उसनेे सीधा सा जवाब दिया।”
“तो ठीक है, अभी तुरंत जाकर इसके कपड़ों को धो दिजीए और बैग को भी साफ कर दिजीएगा। कल नौ बजे मैं स्वयं आ जाऊंगा।” कहकर मैंने मोहन से जो बगल में खड़े होकर चुपचाप हमारी बात सुन रहा था , मुस्कराकर पूछा, “क्यों बेटे, कल से स्कूल चलोगे न?”
“हां सर, जरुर चलूंगा।” वह खुशी से बोला।
“तो ठीक है, अब जाओ और कल चलने की तैयारी करो।” कहकर मैं अपने घर की ओर लौट पड़ा और अगले दिन सुबह नौ बजे जब मैं उसके घर पहुंचा तो यह देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि मोहन की मां ने उसे नहला कर और स्कूल का ड्रेस पहनाकर बिल्कुल तैयार कर दिया था। मैं उसे लेकर बगल के सरकारी स्कूल में गया और प्रधानाध्यापक से मिलकर उसका नामांकन करवा दिया। जब मैं वहां से लौटने लगा तो मोहन की आंखों में खुशी के आंसू आ गए और मेरे मन में अपार प्रसन्नता हिलोरें ले रही थी।

सुधीर कुमार

म वि शीशागाछी
टेढ़ागाछ किशनगंज

Spread the love

Leave a Reply