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प्यारी गुड़िया-विजय सिंह नीलकण्ठ - गद्य गुँजन

प्यारी गुड़िया-विजय सिंह नीलकण्ठ

प्यारी गुड़िया

          यह कहानी उस समय की है जब मैं पाँँच से छः साल का बच्चा था। एक दिन गाँव के मेले में एक खिलौने का दुकान देखा जिस पर अनेकों खिलौने थे। कई तरह के जानवरों, पक्षियों, पेड़-पौधों, खेल सामग्रियों, राजा- रानियों और गुड्डा-गुड़ियों इत्यादि के खिलौने भरे पड़े थे। अनेकों बच्चे दुकान के सामने भीड़ लगाकर ललचाई दृष्टि से खिलौनों की ओर देख रहे थे। स्वाभाविक रूप से मैं भी उस दुकान के सामने जाकर खड़ा हो गया और खिलौनों को निहारने लगा। बाईं ओर से देखते-देखते जब दाईं ओर के रेक तक नजर गई तो सब से कोने में एक गुड़िया थी जिसे देखकर आभास हुआ कि उसकी पलकें झपक रही है। मैं झेंप सा गया, फिर दूसरी तरफ देखने लगा। पुनः मन नहीं माना और फिर देखा तो वही पलक का झपकना! मैं वहां से दौड़कर अपनी माँ के पास चला गया लेकिन उस गुड़िया के पलक झपकने का कार्य भुला नहीं पा रहा था। फिर जब मेले से वापस आने की बात हुई तो माँ स्वयं मुझे लेकर उस दुकान तक गई। मेरे अंदर उत्सुकता जगी और माँ को धीरे से कहा- देखो न माँ वह गुड़िया मुझे आँख मार रही है! माँ ने कहा- चल निर्लज्ज अभी से लड़कियों पर दिल आने लगा! मैं शरमा सा गया और माँ से जिद करके उस गुड़िया को खरीद ही लिया जो मात्र ₹ 50 में मिल गई। फिर गुड़िया को लेकर माँ के साथ घर आ गया और अपने रूम के स्टडी टेबल पर उसे रख दिया। फिर पैर-हाथ धोकर कुछ देर इधर-उधर घूमा और पढ़ने बैठ गया। मैंने देखा कि वह गुड़िया भी टेबल से उतरकर मेरी गोद में आकर बैठ गई। मैं थोड़ा डर गया और उसे दूर फेंक दिया लेकिन पुनः साहस कर रूम का दरवाजा बंद करके उसे बड़े प्यार से उठाया और बोला- सखे माफ कर देना मैं बहुत डर गया था! वह बोली- कोई बात नहीं ऐसा तो एक बार होना ही था। फिर अपने मुख पर मुस्कान लिए बोली कि क्या तुम अभी भी डर रहे हो? मैंने कहा नहीं, फिर क्या था हम दोनों पक्के मित्र बन गए।
एक दिन जब मैं विद्यालय से आया तो वह रो रही थी। मैंने उसे चुप करते हुए कारण पूछा तो उसने कहा कि मुझे अकेला मत रखो, मुझे मन नहीं लगता है। कल से तुम मुझे भी अपने साथ ही स्कूल बैग के अंदर रखकर विद्यालय ले चलो। मैंने उसकी बात मान ली। अब वह हमेशा मेरे साथ रहती। जब भी मुझसे मिलने को मन होता तो बस एक हाथ उठा देती, मैं समझ जाता और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगता जिससे वह काफी खुश होती। कुछ दिन बाद मैंने उसके बारे में जानना चाहा कि वह कौन है? उसने कहना शुरू किया- एक रात मैं अपने छत पर टिमटिमाते तारों को देख रही थी कि अचानक एक परी छत पर आई और मेरा हाथ पकड़ कर खेलने को कहा। मैं भी परी को देखकर काफी खुश थी और एक साथ मिलकर खेलने लगी। कुछ देर बाद वह जाने लगी तो मैं उससे रुक जाने की जिद करने लगी। भला कोई परी रुक सकती थी क्या! मैंने उनसे बार-बार निवेदन की लेकिन वह नहीं मान रही थी। फिर मैंने गुस्सा कर धमकी देते हुए कहा यदि आप नहीं रुकोगी तो मैं छत से कूदकर जान दे दूँगी। इतना सुनते ही वह व्याकुल हो उठी और कहा कि तुम मुझे बहुत पसंद करती हो और मैं भी तुम्हें अपनी पुत्री के सदृश मानती हूँ इसलिए मेरी बात मान लो, मुझे जाने दो, मैं कल फिर आऊँगी। लेकिन मैंने अपनी जिद नहीं छोड़ी और छत से कूद पड़ी। तभी परी ने श्राप दे दिया- तुम गुड़िया बन जाओ! फिर क्या था, मैं गुड़िया बन गई। फिर परी ने मुझे उठा कर मेले में स्थित खिलौने की दुकान पर लाकर रख दी और तब से मैं तेरी राह देख रही थी क्योंकि परी ने कहा था कि एक पारस नाम का लड़का है जो तुम्हें खरीद कर ले जाएगा और अपनी बहन की तरह प्यार करेगा। जब मैंने तुम्हारी पहचान पूछी तो उसने कहा कि उसके दुकान पर आते ही तुम सजीव हो जाओगी और पलकें झपकने लगोगी। उसके बाद क्या हुआ वो तो तुम जानते हो। अंत में उसने कहा कि मुझे अपने से जुदा नहीं करना नहीं तो फिर से छत से कूदकर जान दे दूँगी। यह सुनकर मैं हँसने लगा और उसे वचन दिया कि मैं हमेशा तुम्हें अपने साथ रखूँगा।

विजय सिंह नीलकण्ठ
सदस्य टीओबी टीम

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One thought on “प्यारी गुड़िया-विजय सिंह नीलकण्ठ

  1. बहुत सुन्दर बाल कहानी। ऊपर से संस्मरण लगा बीच से अंत तक कहानी

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