बात उस समय की है जब मैं दस वर्ष का था। और 1978 का साल था। तब मैं पंचम वर्ग में पढ़ता था। जहां तक मुझे याद है मेरे वर्ग में लगभग पचास विद्यार्थी पढ़ते थे। उनमें धर्मेन्द्र नाम का सहपाठी बहुत ही शरारती था। अक्सर किसी न किसी कारण वह मुझे व अन्य सहपाठियों को भी तंग करता रहता था। पढ़ाई के मामले में मैं भले ही उससे आगे रहता था पर उस बचपन के लड़ाई-झगड़े में मैं उससे पार नहीं पाता था।
एक दिन संस्कृत की घंटी में कुछ लड़कों की शरारत सूझी। उन लड़कों में से इसी धर्मेन्द्र ने कुछ ऐसा शरारतपूर्ण कार्य कर डाला था कि हम सभी सहपाठियों के लिए शर्म की बात बन गई। हुआ यह कि स्कूल के सारे फर्नीचर, बेंच,डेस्क, टेबुल कुर्सी आदि के मरम्मत के कार्य चल रहे थे।अचानक एक टूटी कुर्सी धर्मेन्द्र ने अपने वर्ग में लाकर रख दी और अच्छी कुर्सी को हटा दिया। जब शिक्षक क्लास में पधारे तो जैसे ही कुर्सी पर बैठे वे कुर्सी सहित चारो खाने चित्त हो गए। मेरे क्लास के सभी सहपाठियों का सिर झुका हुआ था पर धर्मेन्द्र को हंसी आ रही थी। हममें से तीन चार साथियों ने मिलकर शिक्षक महोदय को उठाया। उनको जगह-जगह चोटें आ गई थी। कैसे यह कांड हुआ,इसका कारण वे हम सबों से पूछने लगे। सभी ने यही कहा ,”मैं नहीं जानता कि कुर्सी यहां कौन लाया।”
जब संस्कृत विषय के उक्त गुरुजी ने वर्गनायक होने के नाते मुझसे पूछा तो मैंने हिम्मत बांधते हुए कहा-” यही है गुरुजी! इसी ने ऐसा शर्मनाक कार्य किया है!” लेकिन सहपाठी धर्मेन्द्र अपनी झूठी सफाई देने लगा। गुरुजी कहां सुनने वाले थे। अनुशासन और शिष्टाचार की दुहाई देते हुए उसकी पिटाई करने लगे। फिर एक शिकायत-पत्र लिखकर उसके पिता जी के पास भिजवा दिया।
मुझे उस समय बड़ा पछतावा हो रहा था कि ऐसी घटना घट जाएगी।उसकी पिटाई देखकर मेरी आंखों में आंसू छलक पड़े। हमें बड़ा आश्चर्य हुआ जब मैं उससे माफी मांगने गया तो मुझपर और गुस्सा गया। पर दूसरे दिन बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ। उसने अपनी हाथ मेरे हाथ में डालकर मुझसे कहा-“माफी तो मुझे मांगनी चाहिए दोस्त। क्योंकि अगर मुझे ऐसी सजा नहीं मिलती तो मेरी शैतानी हमेशा से बनी रह जाती। गुरुजी की दी हुई सजा अब मेरे लिए आशीर्वाद बन गई है। मेरे पिताजी के साथ में शिकायती पत्र आया तो उन्होंने मुझे गुरु की महत्ता बताई कि वे अपने जमाने में स्कूल की पढ़ाई के दौरान कैसे गुरुजी का आदर करते थे और उनकी सभी आज्ञाओं का पालन करते थे। अब मैं कभी भी ऐसी हरकत नहीं कर सकता। तुमने तो आज मेरा हृदय परिवर्तन करा दिया है। आज मैं तुम्हारे प्रति कृतज्ञ हूं।”
दूसरे दिन सहपाठी धर्मेन्द्र को लेकर उनके पिताजी संस्कृत के गुरुजी और प्रधानाध्यापक से उनके कार्यालय कक्ष और वर्ग कक्ष में जाकर माफी मांगी।
फिर मेरे सहपाठी ने भी गुरुजी से क्षमायाचना की। गुरु जी ने हंसकर आशीर्वाद दिया। अनुशासन और नैतिकता की शिक्षा दी।
आज उस घटना को बरसों बीत चुके हैं पर उस घटना को मैं कभी नहीं भूल सका। आज उम्र के इस दौर में भी मेरा उस सहपाठी से सच्चे मित्र की भांति ही बातें और मुलाकातें होती हैं। और मन में सोचते हैं कि मित्रवत व भाईचारे की भावना सदैव बनी रहे।
सुरेश कुमार गौरव, शिक्षक,पटना (बिहार)
मेरे अपने संस्मरण