पगला है- संजीव प्रियदर्शी

Sanjiv

लघुकथा

सनोज दास जिस दिन नौकरी में आये,उस दिन उनके हिस्से की ऊपरी कमाई ढ़ाई सौ रुपये बनती थी।साथी अहलकार ईमानदार थे,सो बड़ा बाबू रुपये बढ़ाते हुए बोले-‘ देखिए सनोज जी, पहला दिन होने के कारण आप का हिस्सा गटक भी सकते थे, परन्तु हमलोग इतने खुदगर्ज नहीं हैं कि अपने सहयोगियों का हक मार लें। आज तो आपकी बोहनी हुई है। यहाँ छल-कपट व झूठ-फरेब में जितने पारंगत होते जायेंगे,बरकत उतनी ही होती जायेगी।’
सनोज दास को अपने परिवार में अच्छे संस्कार मिले थे। अतः नौकरी ज्वाइन करने के पूर्व वे घर में अपने इष्ट देवों व माता-पिता के समक्ष यह प्रण करके चले थे कि परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही विपरीत क्यों न हो जाएं, अधर्म से अपने पुरखों के मुख पर कालिख नहीं पुतने देंगे। वे जरा मुस्कुरा कर बोले-‘ रुपये आप ही रख लीजिए बड़ा बाबू, मुझे मुफ्त के धन में कोई अनुराग नहीं।’
बड़ा बाबू को क्या उज्र होता।वे यह सोचकर रुपये रख लिए कि अभी नया है। इसलिए झिझकता है। कुछ दिनों बाद ही हिस्से के लिए खुद बगावत करते फिरेंगे।
जब कई माह बाद भी सनोज दास अपने न्याय पथ से नहीं डिगे तब उसके सहकर्मियों द्वारा प्रायः यह कहते हुए सुना जाने लगा – ‘साला पगला है। भला लक्ष्मी से भी कोई वैर रखता है?’

संजीव प्रियदर्शी

फिलिप उच्च मा०वि0 बरियारपुर, मुंगेर

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